ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
ऊ॒र्ध्वो वा॑म॒ग्निर॑ध्व॒रेष्व॑स्था॒त्प्र रा॒तिरे॑ति जू॒र्णिनी॑ घृ॒ताची॑। प्र होता॑ गू॒र्तम॑ना उरा॒णोऽयु॑क्त॒ यो नास॑त्या॒ हवी॑मन् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वः । वा॒म् । अ॒ग्निः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । अ॒स्था॒त् । प्र । रा॒तिः । ए॒ति॒ । जू॒र्णिनी॑ । घृ॒ताची॑ । प्र । होता॑ । गू॒र्तऽम॑नाः । उ॒रा॒णः । अयु॑क्त । यः । नास॑त्या । हवी॑मन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो वामग्निरध्वरेष्वस्थात्प्र रातिरेति जूर्णिनी घृताची। प्र होता गूर्तमना उराणोऽयुक्त यो नासत्या हवीमन् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वः। वाम्। अग्निः। अध्वरेषु। अस्थात्। प्र। रातिः। एति। जूर्णिनी। घृताची। प्र। होता। गूर्तऽमनाः। उराणः। अयुक्त। यः। नासत्या। हवीमन् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
विषय - फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (नासत्या) सत्य व्यवहारयुक्त सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों का यदि (यः) जो (गूर्त्तमनाः) उद्यम करने को मन जिसका वह (उराणः) बहुत पदार्थ सिद्ध करनेवाला (होता) दानशीलजन (अध्वरेषु) अहिंसादि धर्मयुक्त व्यवहारों में (ऊर्ध्वः) ऊपर जानेवाला (अग्निः) अग्नि के समान (अस्थात्) स्थिर होता है और (घृताची) रात्रि के समान (जूर्णिनी) वेगवती (रातिः) दानक्रिया (प्र, एति) प्राप्त होती है वा (हवीमन्) होम कर्म में (प्र, अयुक्त) अच्छे प्रकार प्रयुक्त होता, उसका सदा सत्कार करो ॥४॥
भावार्थ - हे सभासेनाधीशो ! जो मनुष्य राजव्यवहार में सत्य और उत्साह से प्रवृत्त होते हैं, उनका सत्कार आप लोग करें ॥४॥
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