ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श्रु॒ष्टी वां॑ य॒ज्ञ उद्य॑तः स॒जोषा॑ मनु॒ष्वद्वृ॒क्तब॑र्हिषो॒ यज॑ध्यै। आ य इन्द्रा॒वरु॑णावि॒षे अ॒द्य म॒हे सु॒म्नाय॑ म॒ह आ॑व॒वर्त॑त् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒ष्टी । वा॒म् । य॒ज्ञः । उत्ऽय॑तः । स॒ऽजोषाः॑ । म॒नु॒ष्वत् । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । यज॑ध्यै । आ । यः । इन्द्रा॒वरु॑णौ । इ॒षे । अ॒द्य । म॒हे । सु॒म्नाय॑ । म॒हे । आ॑ऽव॒वर्त॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुष्टी वां यज्ञ उद्यतः सजोषा मनुष्वद्वृक्तबर्हिषो यजध्यै। आ य इन्द्रावरुणाविषे अद्य महे सुम्नाय मह आववर्तत् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठश्रुष्टी। वाम्। यज्ञः। उत्ऽयतः। सऽजोषाः। मनुष्वत्। वृक्तऽबर्हिषः। यजध्यै। आ। यः। इन्द्रावरुणौ। इषे। अद्य। महे। सुम्नाय। महे। आऽववर्तत् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - अब ग्यारह ऋचावाले अड़सठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों को अच्छे प्रकार कौन पढ़ाने चाहियें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (इन्द्रावरुणौ) वायु और बिजुली के समान अध्यापक और उपदेशको ! (यः) जो (उद्यतः) उद्योगी (सजोषाः) अपने आत्मा के तुल्य औरों का प्रीति से सेवन करता (मनुष्यवत्) मनुष्य के तुल्य (वृक्तबर्हिषः) संक्षोभित किया जल जिसने उसका और (वाम्) तुम्हारा (यज्ञः) सङ्ग करने योग्य शिष्य (आ, यजध्यै) अच्छे प्रकार सङ्ग करने को (अद्य) आज (महे) महान् (सुम्नाय) सुख वा (महे) बहुत (इषे) विज्ञान वा अन्न के लिये (श्रुष्टी) शीघ्र (आववर्त्तत्) अच्छे प्रकार वर्त्तमान है, उसको तुम दोनों पढ़ाओ ॥१॥
भावार्थ - हे पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! जो आप लोगों के सुख के लिये प्रयत्न करते हुए पुरुषार्थी, प्रीतिमान्, शीघ्रकारी वर्त्तमान हैं उन पवित्र, जितेन्द्रिय, धार्मिक विद्यार्थियों को निरन्तर सत्य का उपदेश करो ॥१॥
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