ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
अ॒ग्निरु॒क्थे पु॒रोहि॑तो॒ ग्रावा॑णो ब॒र्हिर॑ध्व॒रे । ऋ॒चा या॑मि म॒रुतो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ दे॒वाँ अवो॒ वरे॑ण्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । उ॒क्थे । पु॒रःऽहि॑तः । ग्रावा॑णः । ब॒र्हिः । अ॒ध्व॒रे । ऋ॒चा । या॒मि॒ । म॒रुतः॑ । ब्रह्म॑णः । पति॑म् । दे॒वान् । अवः॑ । वरे॑ण्यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरुक्थे पुरोहितो ग्रावाणो बर्हिरध्वरे । ऋचा यामि मरुतो ब्रह्मणस्पतिं देवाँ अवो वरेण्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः । उक्थे । पुरःऽहितः । ग्रावाणः । बर्हिः । अध्वरे । ऋचा । यामि । मरुतः । ब्रह्मणः । पतिम् । देवान् । अवः । वरेण्यम् ॥ ८.२७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञ में प्रयोजनीय वस्तुओं को दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(उक्थे) स्तुति के लिये (अग्निः) सर्वाधार ईश्वर (पुरोहितः) अग्रगण्य और प्रथम स्थापनीय है (अध्वरे) यज्ञ के लिये (ग्रावाणः) प्रस्तर के खण्ड भी स्तुत्य होते हैं । (बर्हिः) कुश आदि तृण का भी प्रयोजन होता है, इसलिये मैं (ऋचा) स्तोत्र द्वारा (मरुतः) वायु से (ब्रह्मणस्पतिम्) स्तोत्राचार्य्य से (देवान्) और अन्यान्य विद्वानों से (वरेण्यम्) श्रेष्ठ (अवः) रक्षण की (यामि) याचना करता हूँ ॥१ ॥
भावार्थ - यज्ञ के लिये बहुत वस्तुओं की आवश्यकता होती है, इसलिये सब सामग्रियों की योजना जिस समय हो सके, उसमें यज्ञ करे ॥१ ॥
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