ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
म॒हाँ इन्द्रो॒ य ओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ इ॑व । स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान् । इन्द्रः॑ । यः । ओज॑सा । प॒र्जन्यः॑ । वृ॒ष्टि॒मान्ऽइ॑व । स्तोमैः॑ । व॒त्सस्य॑ । व॒वृ॒धे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ इन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाँ इव । स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । इन्द्रः । यः । ओजसा । पर्जन्यः । वृष्टिमान्ऽइव । स्तोमैः । वत्सस्य । ववृधे ॥ ८.६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - भगवान् के महान् यश को दिखलाने के लिये अग्रिम ग्रन्थ का आरम्भ किया जाता है ।
पदार्थ -
मनुष्यों ! इन्द्रवाच्य ईश्वर को छोड़ अन्यों को क्योंकर पूजते हो । (यः) जो (इन्द्रः) इन्द्र नामधारी परमात्मा (ओजसा) जगत् के सृजन, पालन और संहरणरूप बल से (महान्) बहुत बड़ा है, उसी की पूजा करो, वह (वृष्टिमान्) जलप्रद (पर्जन्यः+इव) मेघ के समान है । जैसे मेघ जल सिक्त करके प्रत्येक वस्तु को पुष्ट करता, बढ़ाता और विविध वर्णों से भूषित करता है, तद्वत् परमात्मा है । वह परमात्मा (वत्सस्य) पुत्रस्थानीय भक्तजन की (स्तोमैः) स्तुतियों से प्रसन्न होकर (वावृधे) उसके सुखों को सब प्रकार बढ़ाता है ॥१ ॥
भावार्थ - हे मनुष्यों ! भगवान् का महत्त्व सृष्टिविद्या के अध्ययन से जानो । जो ये जगत् के धारक, पोषक, सुखप्रापक मेघ, वायु, वह्नि और सूर्य्य प्रभृति हैं, वे भी उसी से उत्पन्न, वर्धित और नियोजित हैं, ऐसी श्रद्धा करो ॥१ ॥
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