ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 48
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उदा॑नट् ककु॒हो दिव॒मुष्ट्रा॑ञ्चतु॒र्युजो॒ दद॑त् । श्रव॑सा॒ याद्वं॒ जन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् । श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् । श्रवसा याद्वं जनम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । आनट् । ककुहः । दिवम् । उष्ट्रान् । चतुःऽयुजः । ददत् । श्रवसा । याद्वम् । जनम् ॥ ८.६.४८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 48
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 8
विषय - उसकी व्यापकता और उदारता दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
वह परमदेव (ककुहः) परम उच्च और परम उदार है, पुनः वह (दिवम्) द्युलोक से लेकर पृथिवी तक अर्थात् सर्वत्र (उदानट्) व्याप्त है । पुनः (याद्वम्) उपासक (जनम्) जन को (श्रवसा) कीर्ति धन आदि सम्पत्ति से विभूषित करके (उष्ट्रान्) अभिलषित (चतुर्युजः) चार योगों को (ददत्) देता हुआ वर्तमान है । चार योग ये हैं १−शारीरिक सुख । २−पुत्र, पौत्र, धन सम्पत्त्यादि सुख । ३−लोक में विद्वत्ता, यशस्विता आदि गुणों का प्रकाश और ४−अन्त में मुक्तिसुख ॥४८ ॥
भावार्थ - जो सर्वज्ञ, परमधनाढ्य और सर्ववित् है, वही सर्व वस्तु दे सकता है, अतः हे मनुष्यों ! सर्वगुणसम्पन्न ईश्वर को भजो, वह तुमको सब देगा ॥४८ ॥
टिप्पणी -
यह अष्टम मण्डल छठा सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥