ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
यु॒क्ष्वा हि दे॑व॒हूत॑माँ॒ अश्वाँ॑ अग्ने र॒थीरि॑व । नि होता॑ पू॒र्व्यः स॑दः ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒क्ष्व । हि । दे॒व॒ऽहूत॑मान् । अश्वा॑न् । अ॒ग्ने॒ । र॒थीःऽइ॑व । नि । होता॑ । पू॒र्व्यः॑ । स॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युक्ष्वा हि देवहूतमाँ अश्वाँ अग्ने रथीरिव । नि होता पूर्व्यः सदः ॥
स्वर रहित पद पाठयुक्ष्व । हि । देवऽहूतमान् । अश्वान् । अग्ने । रथीःऽइव । नि । होता । पूर्व्यः । सदः ॥ ८.७५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - पुनः परमात्मदेव का महिमा दिखलाया जाता है ।
पदार्थ -
(अग्ने) हे सर्वाधार जगदीश ! (देवहूतमान्) प्राणियों को अतिशय सुख देनेवाले (अश्वान्) सूर्य्यादि लोकों को (युक्ष्व+हि) अच्छे प्रकार कार्य्य में नियोजित कीजिये । यहाँ दृष्टान्त कहते हैं (रथाः+इव) जैसे रथी स्वकीय घोड़ों को सीधे मार्ग पर चलाता है । हे ईश आप (होता) महादाता या हवनकर्ता हैं । (पूर्व्यः) सबके पूर्व या पूर्ण हैं, वह आप (नि+सदः) हमारे हृदय में बैठें ॥१ ॥
भावार्थ - वह जगदीश सूर्य्यादि सम्पूर्ण जगत् का शासक दाता और पूर्ण है, उसको अपने हृदय में स्थापित कर स्तुति करें ॥१ ॥
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