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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 6
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
न मत्स्त्री सु॑भ॒सत्त॑रा॒ न सु॒याशु॑तरा भुवत् । न मत्प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युद्य॑मीयसी॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठन । मत् । स्त्री । सु॒भ॒सत्ऽत॑रा । न । सु॒याशु॑ऽतरा । भु॒व॒त् । न । मत् । प्रति॑ऽच्यवीयसी । न । सक्थि॑ । उत्ऽय॑मीयसी । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् । न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठन । मत् । स्त्री । सुभसत्ऽतरा । न । सुयाशुऽतरा । भुवत् । न । मत् । प्रतिऽच्यवीयसी । न । सक्थि । उत्ऽयमीयसी । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - अबला नहीं सबला
शब्दार्थ -
(अयं शरारु:) यह घातक, शत्रु, आक्रान्ता (माम्) मुझे (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है । मैं अबला नहीं हूँ (वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं वीर की पत्नी हूँ (मरुत् सखा) मृत्यु से न डरनेवाले, प्राणों को हथेली पर रखनेवाले वीर सैनिकों की मैं मित्र हूँ (इन्द्रः) ऐश्वर्यशाली मेरा पति (विश्वस्मात् उत्तर:) संसार में सबसे श्रेष्ठ है ।
भावार्थ - वेद में नारी का जो गौरव, प्रतिष्ठा, मान और सम्मान है वह संसार के अन्य साहित्य में कहीं भी नही है । प्रस्तुत मन्त्र में एक नारी की अपने सम्बन्ध में प्रबल सिंहगर्जना है- १. अरे ! यह शत्रु मुझे अबला समझता है । सुन, कान खोलकर सुन ! मैं अबला नहीं हूँ, सबला हूँ । समय-समय पर नारियों ने अपनी वीरता के जौहर दिखाए हैं । झाँसी की रानी को कौन भूल सकता है ? २. मैं वीर-पत्नी हूँ । ३. मैं कायरों, भीरुओं के साथ मैत्री नहीं करती, उनके साथ सहानुभूति नहीं रखती, अपितु जो मरने-मारने के लिए तैयार रहते हैं उन्हें ही अपना सखा बनाती हूँ । ४. मेरा पति इतना वीर है कि संसार में उस-जैसा कोई दूसरा वीर नहीं है ।
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