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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 23 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 23/ मन्त्र 17
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
विश्वे॑भ्यो॒ हि त्वा॒ भुव॑नेभ्य॒स्परि॒ त्वष्टाज॑न॒त्साम्नः॑साम्नः क॒विः। स ऋ॑ण॒चिदृ॑ण॒या ब्रह्म॑ण॒स्पति॑र्द्रु॒हो ह॒न्ता म॒ह ऋ॒तस्य॑ ध॒र्तरि॑॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑भ्यः । हि । त्वा॒ । भुव॑नेभ्यः । परि॑ । त्वष्टा॑ । अज॑नत् । साम्नः॑ऽसाम्नः । क॒विः । सः । ऋ॒ण॒ऽचित् । ऋ॒ण॒ऽयाः । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । द्रु॒हः । ह॒न्ता । म॒हः । ऋ॒तस्य॑ । ध॒र्तरि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत्साम्नःसाम्नः कविः। स ऋणचिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि॥
स्वर रहित पद पाठविश्वेभ्यः। हि। त्वा। भुवनेभ्यः। परि। त्वष्टा। अजनत्। साम्नःऽसाम्नः। कविः। सः। ऋणऽचित्। ऋणऽयाः। ब्रह्मणः। पतिः। द्रुहः। हन्ता। महः। ऋतस्य। धर्तरि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 23; मन्त्र » 17
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
विषय - संगीत से निर्मित ब्राह्मण
शब्दार्थ -
हे ब्राह्मण ! (त्वष्टा) जगद्-निर्माता, सच्चे शिल्पकार (कवि:) कान्तदर्शी परमात्मा ने (विश्वेभ्य: भुवनेभ्यः परि) सम्पूर्ण लोकों से (साम्नः साम्न:) संगीत-तत्त्व लेकर (हि) ही (त्वा) तुझे (अजनत्) उत्पन्न किया, तेरा निर्माण किया । (ब्रह्मणस्पतिः) ब्राह्मण (स:) वह तू, ऐसा तू (ऋणचित्) दूसरों पर उपकारों का भार चिननेवाला है और (ऋणया) अपने ऋण के भार से (द्रुहः) द्रोह का (हन्ता) मारनेवाला है - (महः) महान् (ऋतस्य) ज्ञानरूप ऋण के (धर्तरि) सिर पर ढोए जाने पर ।
भावार्थ -
मन्त्र में सच्चे ब्राह्मण का वर्णन है - ईश्वर ने ब्राह्मण की रचना संगीत - तत्त्व से की है । सब लोकों में जहाँ-जहाँ भी संगीत था वहाँ-वहाँ से संगीत लेकर प्रभु ने ब्राह्मण का निर्माण किया । संगीत की एक अद्भुत विशेषता है - मार खाकर मीठा बोलना । तबला मीठा बोलता है मार खाकर । बस, यही ब्राह्मण का स्वरूप है । ब्राह्मण दूसरों को मारता है परन्तु कैसे ? ऋण के भार से, अपने उपकारों के बोझ से । सच्चा ब्राह्मण अपकार का बदला उपकार से देता है, वह द्वेषाग्नि को प्रेम-वारि से शान्त करता है। लोग ऐसे व्यक्ति के ऊपर पत्थर फेंकते हैं और वह मिठाई बरसाता है । लोग उसे गालियाँ देते हैं और वह उनके घर मिठाइयों की टोकरियाँ भेजता है। लोग उसे विष पिलाते हैं और वह विषदाताओं को अमृत पिलाता है। महर्षि दयानन्द ऐसे ही ब्राह्मण थे जिन्होंने अपने विषदाता जगन्नाथ को रुपयों की थैली देकर उसका जीवन बचाया था । प्रभो ! हमें भी ऐसा ब्राह्मण बनने का सामर्थ्य दो ।
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