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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
इन्द्र॑: सु॒तेषु॒ सोमे॑षु॒ क्रतुं॑ पुनीत उ॒क्थ्य॑म् । वि॒दे वृ॒धस्य॒ दक्ष॑सो म॒हान्हि षः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । सु॒तेषु॑ । सोमे॑षु । क्रतु॑म् । पु॒नी॒ते॒ । उ॒क्थ्य॑म् । वि॒दे । वृ॒धस्य॑ । दक्ष॑सः । म॒हान् । हि । सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र: सुतेषु सोमेषु क्रतुं पुनीत उक्थ्यम् । विदे वृधस्य दक्षसो महान्हि षः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः । सुतेषु । सोमेषु । क्रतुम् । पुनीते । उक्थ्यम् । विदे । वृधस्य । दक्षसः । महान् । हि । सः ॥ ८.१३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - उसे कौन पाता है ?
शब्दार्थ -
(सूर्य) हे सकल संसार को देदीप्यमान करनेवाले परमेश्वर ! तू ( इत् ह ) निश्चय से (उद् एषि) उस मनुष्य के हृदय में प्रकाशित होता है जो (श्रुतामघम्) धन होने पर उसे दीन-दुःखियों में वितरित करता है (वृषभम्) जो ज्ञान और भक्तिरस की धाराओं की वृष्टि करता है (नर्यापसम्) जो मनुष्य हितकारी, परोपकार आदि कार्य करता है और (अस्तारम् ) जो काम, क्रोध आदि शत्रुओ को परे भगा देता है ।
भावार्थ - संसार में प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा है कि उसे ईश्वर के दर्शन हों। ईश्वर-दर्शन के लिए कुछ साधना करनी पड़ती है । उपासक को अपने जीवन को निर्मल और पवित्र करना पड़ता है, कुछ विशेष गुणों को अपने जीवन में धारण करना पड़ता है। प्रस्तुत मन्त्र में ईश्वर को प्राप्त करनेवाले व्यक्ति के कुछ लक्षण बताये गये हैं । १. ईश्वर को वह प्राप्त कर सकता है जो दानशील है, निरन्तर देता रहता है । जो अपने धन को दीन, दुःखी, पीड़ित और दुर्बलों में बाँटता रहता है । २. ईश्वर दर्शन का अधिकारी वह है जो लोगों पर ज्ञान और भक्तिरस की आनन्द-धाराओं की वर्षा करता है । ३. ईश्वर ऐसे व्यक्ति के हृदय में प्रकाशित होते हैं जो परोपकारपरायण है, जो दूसरों का हितसाधन करता है । ४. ईश्वर उसके हृदय मन्दिर में विराजते हैं जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रुओं को दूर भगाकर अपने हृदय को शुद्ध और पवित्र बना लिया है ।
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