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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 32
स सूर्य॑स्य र॒श्मिभि॒: परि॑ व्यत॒ तन्तुं॑ तन्वा॒नस्त्रि॒वृतं॒ यथा॑ वि॒दे । नय॑न्नृ॒तस्य॑ प्र॒शिषो॒ नवी॑यसी॒: पति॒र्जनी॑ना॒मुप॑ याति निष्कृ॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ । परि॑ । व्य॒त॒ । तन्तु॑म् । त॒न्वा॒नः । त्रि॒ऽवृत॑म् । यथा॑ । वि॒दे । नय॑न् । ऋ॒तस्य॑ । प्र॒ऽशिषः॑ । नवी॑यसीः । पतिः॑ । जनी॑नाम् । उप॑ । या॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सूर्यस्य रश्मिभि: परि व्यत तन्तुं तन्वानस्त्रिवृतं यथा विदे । नयन्नृतस्य प्रशिषो नवीयसी: पतिर्जनीनामुप याति निष्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । सूर्यस्य । रश्मिऽभिः । परि । व्यत । तन्तुम् । तन्वानः । त्रिऽवृतम् । यथा । विदे । नयन् । ऋतस्य । प्रऽशिषः । नवीयसीः । पतिः । जनीनाम् । उप । याति । निःऽकृतम् ॥ ९.८६.३२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 32
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञोपवीत
शब्दार्थ -
(सूर्यस्य रश्मिभिः) ज्ञान-रश्मियों से (परि व्यत) आवृत, परिवेष्टित आत्मावाला (सः) वह गुरु (त्रिवृतं तन्तुम्) तीन बटवाले धागे, यज्ञोपवीत को (तन्वानः) धारण कराता हुआ (यथा विदे) सम्यक् ज्ञान के लिए (ऋतस्य) सृष्टि-नियम की (नवीयसीः) नवीन अति उत्तमोत्तम (प्रशिष:) व्यवस्थाओं का (नयन्) ज्ञान कराता हुआ (पति:) उनका पालक होकर (जनीनाम्) पुत्रोत्पादक माताओं के (निष्कृतम् उपयाति) सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है ।
भावार्थ - १. जिसका आत्मा सूर्य के समान देदीप्यमान हो ऐसा व्यक्ति ही गुरु होने के योग्य है । २. ऐसा गुरु ही शिष्य को यज्ञोपवीत देने का अधिकारी है । ३. गुरु का कर्तव्य है कि वह अपने शिष्य को सम्यक् ज्ञान कराए । ४. गुरु को योग्य है कि वह अपने शिष्य को सृष्टि-नियमों का बोध कराए । ५. गुरु को शिष्यों का पालक और रक्षक होना चाहिए । ६. ऐसे गुणों से युक्त गुरु माता की गौरवमयी पदवी को प्राप्त होता है, माता के समान गौरव और आदर पाने योग्य होता है । मन्त्र में आये ‘तन्तु तन्वानस्त्रिवृतम्’ शब्द स्पष्टरूप में यज्ञोपवीत धारण करने का संकेत कर रहे हैं ।
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