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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यम॑ग्ने॒ मन्य॑से र॒यिं सह॑सावन्नमर्त्य । तमा नो॒ वाज॑सातये॒ वि वो॒ मदे॑ य॒ज्ञेषु॑ चि॒त्रमा भ॑रा॒ विव॑क्षसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । अ॒ग्ने॒ । मन्य॑से । र॒यिम् । सह॑साऽवन् । अ॒म॒र्त्य॒ । तम् । आ । नः॒ । वाज॑ऽसातये । वि । वः॒ । मदे॑ । य॒ज्ञेषु॑ । चि॒त्रम् । आ । भ॒र॒ । विव॑क्षसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमग्ने मन्यसे रयिं सहसावन्नमर्त्य । तमा नो वाजसातये वि वो मदे यज्ञेषु चित्रमा भरा विवक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । अग्ने । मन्यसे । रयिम् । सहसाऽवन् । अमर्त्य । तम् । आ । नः । वाजऽसातये । वि । वः । मदे । यज्ञेषु । चित्रम् । आ । भर । विवक्षसे ॥ १०.२१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 21; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 4

    Bhajan -

    आज का वैदिक भजन 🙏 1163
    ओ३म् यम॑ग्ने॒ मन्य॑से र॒यिं सह॑सावन्नमर्त्य ।
    तमा नो॒ वाज॑सातये॒ वि वो॒ मदे॑ य॒ज्ञेषु॑ चि॒त्रमा भ॑रा॒ विव॑क्षसे ॥
    ऋग्वेद 10/21/4

    हे सहसावन् !! माहिन भगवन् !!
    तुम ज्ञान-बलों के अधिपति
    तेरी महिमा अनुभव करता हूँ 
    मैं पाऊँ शरण तेरी
    हे सहसावन् !! 

    माँगना चाहूँ पर क्या माँगूँ ? 
    नहीं है योग्यता 
    समझते हो योग्य तो 
    हे अनुभवी ! दे दो पात्रता 
    मोल ना समझा तो 
    कर दूँगा कहीं ना कहीं क्षति 
    तेरी महिमा अनुभव करता हूँ 
    मैं पाऊँ शरण तेरी
    हे सहसावन् !! 

    आ गया अभिमान धन का 
    कैसे होगी उन्नति ?
    इसलिए मैं माँगूँ धन 
    यज्ञरूप जो होवे सति
    मैं तो पाना चाहूँ 
    तेरे पूजित धन की आहुति 
    तेरी महिमा अनुभव करता हूँ 
    मैं पाऊँ शरण तेरी
    हे सहसावन् !!

    भली प्रकार से जानते हो 
    क्या है मार्ग विकास का 
    हर तरफ कल्याण हो 
    ऐश्वर्य हो वह प्रकाश का 
    उन्नति हेतु ही देना 
    लाभ, हे करुणानिधि !!
    तेरी महिमा अनुभव करता हूँ 
    मैं पाऊँ शरण तेरी
    हे सहसावन् !! 

    दे दे अपना चित्र-धन 
    जो तेरे गुणों से हो चित्रित 
    दिव्य रूप हो आहुति प्रेरक 
    सत्व-तत्व से हो निर्मित 
    जिससे हो देवत्व, बल का
    ज्ञानरूप हे रयिपति !!!
    तेरी महिमा अनुभव करता हूँ 
    मैं पाऊँ शरण तेरी
    हे सहसावन् !! माहिन भगवन्!!
    तुम ज्ञान-बलों के अधिपति
    तेरी महिमा अनुभव करता हूँ 
    मैं पाऊँ शरण तेरी
    हे सहसावन् !! माहिन भगवन्!!
    तुम ज्ञान-बलों के अधिपति
    तेरी महिमा अनुभव करता हूँ 
    मैं पाऊँ शरण तेरी
    हे सहसावन् !! 

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--   ‌१९.१०.२०२१      १९.०० सायं

    राग :- दरबारी
    गायन समय मध्य रात्रि,  ताल कहरवा 8 मात्रा

    शीर्षक :- हे शक्ति के भण्डार  वैदिक भजन ७३९ वां
    *तर्ज :- *
    744-00145

    सहसावन् = शक्ति के भण्डार
    अधिपति = स्वामी
    पात्रता = पद
    क्षति = नुकसान , हानि
    सति = दान
    आहुति = समर्पण
    चित्र-धन = मन से सोचा याज्ञिक धन
    चित्रित = जो शब्दों के रूप में सुन्दर तरीके से लिखा गया हो।
    सत्व = वास्तविक
    तत्व = सार
    रयिपति = धन-ऐश्वयों का स्वामी
     

    Vyakhya -

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    हे शक्ति के भण्डार! सहसावन् (शक्ति के भण्डार) तुम महान हो, तुम ज्ञान, बल आदि सब प्रकार से महान हो, बहुत अधिक महान हो। तुम्हारी माता को अनुभव करके, हे अमर अग्ने! मैं तुम्हारी शरण पड़ गया हूं। तुम्हारी शरण में आकर मैं तुमसे और क्या मांगू? मुझे तो मांगने का शऊर (अक्ल)ही नहीं है, मुझे वह ज्ञान ही नहीं कि अपने योग्य वस्तु को ठीक जान सकूं। इसलिए, हे अग्ने! तुम ही जिस ऐश्वर्य को मुझे देने योग्य समझते हो उसे मेरे लिए ला दो, मुझे प्रदान करते रहो। मेरे विकास के लिए अब किस ऐश्वर्य की आवश्यकता है यह तुम ही ठीक जानते हो, तुम ही जान सकते हो। इसलिए मेरी उन्नति के लिए, मेरे बल-लाभ (वाजसाति) के लिए योग्य रयि(धन) को तुम ही प्रदान करो। नहीं, 'अपने बल-लाभ (वाजसाति)के लिए'
    ऐसा मैं क्यों कहूं? बल- लाभ करके मैं और क्या करूंगा? मुझे तेरे विमद(प्रसन्नता) के लिए, तेरी तथा देवों की विशेष प्रसन्नता के लिए, यज्ञ में तुम्हारी परितृप्ति करने के लिए ही  तेरा दिया 'रयि' चाहिए। तेरे दिये आवश्यक रयि को पाकर, ज्ञान- बल आदि से सम्पन्न होकर मुझे तेरे लिए ही यज्ञ- कर्म करना है और मुझे क्या करना है? यज्ञों में तेरी परितृप्ति कर सकूं इसलिए, हे अग्ने! तू मुझे अपना 'चित्र' धन प्रदान कर। तू मेरे लिए जो ऐश्वर्य देगा वह मेरे हित में अद्भुत गुण कारक सिद्ध होगा,
    वह मेरे लिए तेरी पवित्र पूज्य भेंट रूप होगा, उससे ही नि:संदेह मेरा कल्याण सिद्ध होगा। इसलिए अग्ने! तू मुझे अपना चित्र -ऐश्वर्य दे, अपनी परितृप्ति के लिए दे और उस परितृप्ति द्वारा महान हो, अपने दिव्य रूप से महान होता हुआ भी मेरी इस परितृप्ति द्वारा मानसिक रूप से भी महान हो।
     

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