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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 15
यः सु॑न्व॒ते पच॑ते दु॒ध्र आ चि॒द्वाजं॒ दर्द॑र्षि॒ स किला॑सि स॒त्यः। व॒यं त॑ इन्द्र वि॒श्वह॑ प्रि॒यासः॑ सु॒वीरा॑सो वि॒दथ॒मा व॑देम॥
स्वर सहित पद पाठयः । सु॒न्व॒ते । पच॑ते । दु॒ध्रः । आ । चि॒त् । वाज॑म् । दर्द॑र्षि । सः । किल॑ । अ॒सि॒ । स॒त्यः । व॒यम् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । वि॒श्वह॑ । प्रि॒यासः॑ । सु॒ऽवीरा॑सः । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः सुन्वते पचते दुध्र आ चिद्वाजं दर्दर्षि स किलासि सत्यः। वयं त इन्द्र विश्वह प्रियासः सुवीरासो विदथमा वदेम॥
स्वर रहित पद पाठयः। सुन्वते। पचते। दुध्रः। आ। चित्। वाजम्। दर्दर्षि। सः। किल। असि। सत्यः। वयम्। ते। इन्द्र। विश्वह। प्रियासः। सुऽवीरासः। विदथम्। आ। वदेम॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 15
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
Bhajan -
वैदिक मन्त्र
य: सुन्वते पचते दुग्घ्र आ चिद्वाजं ददर्षि स किलासि सत्य:।
वयं त इन्द्र विश्वह प्रियास:सुवीरासो विदथमा वदेम।। ऋ•२.१२.१५
वैदिक भजन १११४वां
राग खमाज
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल कहरवा ८ मात्रा
साधक पाते परमेश्वर को
जप-तप के कठिन प्रयत्नों से
श्रद्धा,भक्ति अनुराग लिए
उन्नत-पथ के संकल्पों से
संकल्पों से ।।
साधक.......
नित से यम- नियमों ऊपर चल तू
आदेश प्रभु का कर पालन
उस ओर से प्रभु कृपालु
कर देंगे उत्साह-वर्धन
शारीरिक आत्मिक बल देकर (२)
करते हैं कृपा निज भक्तों पे।।
श्रद्धा.......
साधक......
सत्य-ज्ञान को पाते हैं साधक
करते चिन्तन व मनन
ज्ञानरूप बन के याज्ञिक
करते निष्काम जीवन
साधक को करते प्रभु पावन(२)
हर ओर से अपने अवनों से ।।
श्रद्धा..........
साधक.....
प्रभु सत्य स्वरूप है इन्द्र
और सत्ता है उनकी अनमिट
उसकी महिमा भी तोहै अनुपम
और शक्तियां हैं स्वाश्रित
सच्चे प्रेमी भक्तों को प्रभु(२)
रखते हैं दूर ही कष्टों से।।
श्रद्धा.........
साधक......
भाग २
साधक पाते परमेश्वर को
जप-तप के कठिन प्रयत्नों से
श्रद्धा भक्ति अनुराग लिए
उन्नत पथ के संकल्पों से
संकल्पों से।।
साधक........
कोई माने या ना माने
पर उसकी सत्ता है अनुपम
प्रभु को ना पड़े कोई अन्तर
अज्ञानी को है केवल भ्रम
जीते हैं नास्तिक घाटे में(२)
बिन ज्ञान लिए घिरे विपदा में।।
श्रद्धा.......
साधक......
ऋत- सत्य के नेता हैं ईश्वर
असत्य से लेना ना देना
प्रभु भक्त से दूर है अनृत
प्रभु भक्त सुखी दिन- रैना
सत्याश्रित साधक ही केवल(२)
रहता है दूर विकर्मों से।।
श्रद्धा......
साधक....
जग के प्यारे न्यारे प्रभुजी
शक्ति दो रहें नियम संग
ऐसे संकल्पों से भर दो
सत्य न्याय नियम हो पसंद
ऋतमय सत्यमय हे इन्द्रेश(२)
चलें मार्ग तेरे अनुकरणों से।।
श्रद्धा........
साधक........
१०.७.२०२३
८.३० रात्रि
अनुराग = प्रेम
यम=सत्य अहिंसा अस्तेय ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह
नियम=शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान
याज्ञिक=यज्ञ करनेवाला
निष्काम=बिना स्वार्थ के किए जाने वाला कर्म
अवन=रक्षा
स्वाश्रित=स्वयं पर आश्रित, दूसरों पर नहीं
अनुपम=जिसकी कोई उपमा ना हो
अनृत=असत्य, झूठ
विकर्म =उल्टे कर्म
ऋतमय=कभी ना बदलने वाले नियमों से ओतप्रोत
अनुकरण=समान आचरण, नकल
हे इन्द्र
हे इन्द्र! साधारणतया संसार के धनी पुरुष तेरे सख्य के योग्य नहीं होते, क्योंकि वह हिंसक होते हैं; धन में ऐसा मद (नशा) होता है कि उससे मदोन्मत हुआ पुरुष किसी कर्तव्याकर्तव्य को नहीं देखता। धन का संग्रह बिना हिंसा के होता ही कहां है? जगत में विरले ही धन- समृद्ध पुरुष होंगे जिन्होंने दूसरों को बिना सताए धन प्राप्त किया हो। क्या हम नहीं देखते कि ऐश्वर्य की मदिरा से मस्त हुए, धन शक्ति सर्वोपरि समझते हुए आज संसार के धनाढ्य लोग नि: होकर गरीबों को सता रहे हैं, करुणा पात्रों पर ही नहीं किन्तु साम्मानपात्रों पर भी बेखटके अत्याचार कर रहे हैं? तो हम हिंसक पुरुषों को तेरे दर्शन कैसे प्राप्त हो सकते हैं? इसलिए धन समृद्धों में से तुझे अपने सख्य के लिए लोग नहीं मिलते हैं।
वह तेरे नजदीकी नहीं हो पाते हैं। जो तेरे सखा होते हैं, बल्कि तेरे पुत्र बनते हैं, वे दूसरे प्रकार के ही लोग होते हैं। जो धन- त्याग करने वाले तपस्वी, मदरहित शान्त पुरुष और प्रेम करने वाले अहिंसक होते हैं, वही तुझे पहचान सकते हैं और पहचानते हैं; वे जब तेरी महिमा का अनुभव कर तेरे स्तोता, भक्त बन जाते हैं और विशेषत: जब तू उन्हें सम्यक्तया वहन करता है, उनका पालन-पोषण करने वाला तू है ऐसा वे देखने लगते हैं, तभी वे तुझे 'पिता' 'पिता'करके पुकारने लगते हैं। वे तेरे प्यारे पुत्र बन जाते हैं। इसलिए हे इन्द्र! धनों द्वारा हम तुझे नहीं पा सकते। तुझे पाने के लिए तो हमें धन का, कम-से- कम धन के मोह का त्याग करना पड़ेगा, क्योंकि तभी हम उस 'नदनु'अवस्था को पा सकेंगे जहां पहुंचकर भक्त लोग तुझे 'पिता' 'पिता'कह कर पुकारने लगते हैं और तेरे वात्सल्य में पलनेवाले तेरे प्यारे पुत्र बन जाते हैं।
वैदिक मन्त्र
नकी रेवन्त सख्याय विन्दसे पीयन्ति ते सुराश्व:।यदा कृणोषि नदनुं समूहस्यादित् पितेव हूयसे।।ऋ•८.२१.१४साम•६/२/४ अथ•२०/११४/२
वैदिक भजन १११३वां
राग देस
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल कहरवा ८ मात्रा
मद- पाप में डूबा धनिक पुरुष
कभी इन्द्र प्रभु को ना पा सकता
क्योंकि मद के नशे में है वह हिंसक
कर्तव्याकर्तव्य नहीं समझ सकता।।
मद....…..
बिन हिंसा के धन का संग्रह
कैसे इन लोगों से हो सकता?
विरले धनी हम तो देखते हैं
जिनमें दयाभाव का धन खिलता
मद.......
धन-सम्पत्ति समझते सर्वोपरि
ऐश्वर्य की मदिरा में है मस्त
दीन-करुणा पात्रों में है वो निष्ठुर
फिर कहां प्रभु दर्शन पा सकता?
मद.........
भाग २
मद-पाप में डूबा धनिक पुरुष
कभी इन्द्र प्रभु को ना पा सकता
क्योंकि मद के नशे में है वह हिंसक
कर्तव्याकर्तव्य नहीं समझ सकता।।
मद......
धन समृद्ध तेरे सख्य नहीं
ना तुझे तक आने की है नियति
धन बांटने वाले हैं तेरे सखा
मध रहित तपस्वी है उनकी प्रज्ञा।।
मद......
सही रूप से उन्हें पहचान तेरी
तेरी महिमा का है उनको अनुभव
तेरे स्तोता, भक्त है, पुत्र तेरे
वह मानते तुझे बन्धु ,मात-पिता।।
मद.......
तुझे पाने के लिए मोह का त्याग
' नदनू ' की अवस्था प्राप्त करें
जहां भगवन्-भक्त का होता मिलन
वह बीच में कोई ना आ सकता।।
मद..........
वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १०७ वां वैदिक भजन ।
और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का १११४ वां वैदिक भजन
वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !
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Vyakhya -
हम सदा तेरे प्रिय बने
यूं तो प्रभु दुग्घ्र है, बड़े दुख से बड़ी कठिनाई से-बड़े भारी जप-तप आदि से धारण किया जा सकता है। अर्थात उसको अपनाने के लिए उसको प्राप्त करने के लिए साधक को बड़ी भारी साधना करनी पड़ती है, वह भी सुदीर्घकाल तक और निरन्तर-सतत-लगातार तथा सत्कार पूर्वक-श्रद्धा-भक्ति और प्रेम से। उसको पाना कोई बच्चों का खेल नहीं। वह तो बड़े जप से बड़े तप से और वह भी यम- नियमों आदि के जी जान से पालन करने पर ही कहीं कृपालु होकर साधक को निहाल करता है। ऐसा होता हुआ भी वह (सुन्वते पचते) अर्थात ज्ञान अर्जन करने वाले और उस अर्जित ज्ञान को अपनाने वाले अपने जीवन में आत्मसात करने वाले सच्चे-सुच्चे साधक को शारीरिक बल देता है, मनोबल प्रदान करता है और आत्म बल का उसको धनी बनाता है।
वह इन्द्र तो :सत्य'सत्यस्वरूप है। उसको अपने ढंग की एक अद्वितीय जगत में सत्ता है। उसकी सत्ता से इनकार करने वाले को यह समझ लेना चाहिए कि यदि वह उसको नहीं मानेगा तो भी वह था, है और रहेगा। इस मनुष्य के नाम आने से कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है, उसको कोई हानि होने वाली नहीं है। हां इस नास्तिक को इससे अवश्य घाटा होगा। हानि होगी, क्योंकि यह उससे होने वाले अनुपम अनु ग्रहों से अद्वितीय ज्ञान और आनन्दमय आन्तरिक प्रसाधनों से वंचित रह जाएगा। इसके अतिरिक्त यह 'सत्य' सत्यमय है, वह सत्य से पवित्र है, वह सत्य से देदीप्यमान है, अनृत( झूठ) से, छल कपट से, वह बिल्कुल पड़े हैं। इसलिए जो सच्चा है, जो सत्यप्रिय है, जिसको सत्य प्यारा लगता है, जो सत्य के लिए ही अपना बलिदान करता है, सत्य के लिए ही मरना पसन्द करता है, उसे ही यह प्राणप्रिय प्रभु प्यार करता है, उसको ही वह अपनी दिव्य खुशियों से खुशहाल करता है-उसको ही वह निहाल करता है।
हमें चाहिए कि हम जीवन के सब दिनों में अर्थात हम हमेशा ही हम सदा सर्वत्र सब परिस्थितियों में उसके ही प्रिय प्यारे बनें। क्योंकि मनुष्यों का प्रिय बनने के लिए हमारे जीवनों में ह्रास आता है, कमी आती है, न्यूनता आती है। क्योंकि उनको सत्य प्रिय नहीं होता, उनको न्याय प्रिय नहीं होता। उनको सत्य नियम न्याय तो तब प्रिय लगता है, जब वह उनके स्वार्थ में आड़े ना आए। क्योंकि जो सत्य नियम न्याय उनके स्वार्थ में बाधक बनता है वह तो उनको अच्छा ही नहीं लगता। तब तो फिर उन्हें असत्य, अन्याय, अनियम ही प्रिय लगता है। क्योंकि उसी से ही उनके स्वार्थ की पूर्ति होती है। उनका बच्चा योग्य है तो उनकी मांग होती है कि मेरिट से प्रवेश होना चाहिए पर अगर वह अयोग्य होता है तो बिना मेरिट से किसी तरह से भी उसका प्रवेश हो जाने पर उनको प्रसन्नता होती है। मैं बिना लाइन के टिकट ले सकता हूं तो ठीक है पर दूसरा कोई लेता है और मेरे टिकट लेने में देरी लगती है तो वह फिर मुझे ठीक नहीं लगता। दूसरे का बेटा वही बुराई करें तो मैं चाहता हूं कि उसको फांसी के तख्ते पर लटका देना चाहिए। पर अगर मेरा बेटा वैसा करे तो फिर मैं चाहता हूं कि वह बच्चा है और बच्चे से भूल हो जाती है। अतः उसे क्षमा कर देना चाहिए। फिर इन व्यक्तियों के तो हम कभी प्यारे बन ही नहीं सकते क्योंकि कभी इनको सत्य नियम न्याय पसंद है तो कभी इन्हें स्वार्थ वर्ष असत्य झूठ अनियम और अन्याय प्रिय है। कब इन्हें सत्यप्रिया है और कब असत्य यह जानना भी बड़ा ही कठिन है। अतः इन को प्रसन्न कर इनका प्रिय बनना तो बहुत कठिन है। पर हमारे प्यारे और सब जग से न्यारे प्रभु को तो केवल सत्य नियम न्याय ही पसन्द है। अतः जितना- जितना हम इनका पालन करते जाएंगे उतने- उतने ही हम उस को प्रसन्न करने वाले बंद कर उसके प्यारे बनते जाएंगे। हमें चाहिए कि हम वीर बनकर, सुवीर बनकर सत्य नियम और न्याय का जी जान से स्वयं पालन करने का हार्दिक प्रयास करें। और स्वयं केवल हम वीर सुवीर बनकर ही नहीं वरन् उत्तम वीर पुत्रों वाले बन कर भी हम सदा अपने जीवन में इस सत्य- नियम -न्याय का उस सत्य स्वरूप प्यारे प्रभु के सत्य सनातन वैदिक ज्ञान का सत्य सनातन वैदिक धर्म का मानव मात्र के कल्याण के लिए जी जान से प्रचार और प्रसार करें।
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