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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - विश्वामित्रोपाध्यायः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श॒तधा॑र॒मुत्स॒मक्षी॑यमाणं विप॒श्चितं॑ पि॒तरं॒ वक्त्वा॑नाम्। मे॒ळिं मद॑न्तं पि॒त्रोरु॒पस्थे॒ तं रो॑दसी पिपृतं सत्य॒वाच॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तऽधा॑रम् । उत्स॑म् । अक्षी॑यमाणम् । वि॒पः॒ऽचित॑म् । पि॒तर॑म् । वक्त्वा॑नाम् । मे॒ळिम् । मद॑न्तम् । पि॒त्रोः । उ॒पऽस्थे॑ । तम् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । पि॒पृ॒त॒म् । स॒त्य॒ऽवाच॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतधारमुत्समक्षीयमाणं विपश्चितं पितरं वक्त्वानाम्। मेळिं मदन्तं पित्रोरुपस्थे तं रोदसी पिपृतं सत्यवाचम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतऽधारम्। उत्सम्। अक्षीयमाणम्। विपःऽचितम्। पितरम्। वक्त्वानाम्। मेळिम्। मदन्तम्। पित्रोः। उपऽस्थे। तम्। रोदसी इति। पिपृतम्। सत्यऽवाचम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 4

    Bhajan -

    आज का वैदिक भजन 🙏 1109

    ओ३म् श॒तधा॑र॒मुत्स॒मक्षी॑यमाणं विप॒श्चितं॑ पि॒तरं॒ वक्त्वा॑नाम् ।

    मे॒ळिं मद॑न्तं पि॒त्रोरु॒पस्थे॒ तं रो॑दसी पिपृतं सत्य॒वाच॑म् ॥

    ऋग्वेद 3/26/9

     

    तू है गुरुओं का गुरु 

    ध्यान तेरा ही धरूँ 

    सत्य उपदेश तेरे 

    मन आत्मा में भरूँ 

    ज्ञान वेदों का अक्षय 

    देता है तू महिमामय 

    और बोध सृष्टि का 

    करता है तू ही शुरु

    तू है गुरुओं का गुरु 

     

    पूर्ण ज्ञान देके भी तू 

    पूर्ण ही रहता है

    स्रोत शतधारी 

    अक्षीयमाण वेद कहता है 

    उच्चतम गुरुओं का

    उच्चतम अधिपति 

    महागुरु सर्वोपरि

    अद्भुत आनन्द ज्योति निरंतर

    पाते रहे देवगरू 

    तू है गुरुओं का गुरु 

     

    प्रभु को जो पाना है 

    जगाओ आत्मशक्ति 

    ढूँढ लो हृदय में उसको 

    और पाओ मुक्ति 

    आँखों से ना देखा जाए 

    वह  है सर्वव्यापी 

    कण-कण में दिखे जादूगरी 

    ध्यान निरन्तर है गुरु मन्तर 

    पावो हृदय में अपने प्रभु

    तू है गुरुओं का गुरु 

    ध्यान तेरा ही धरूँ 

    सत्य उपदेश तेरे 

    मन आत्मा में भरूँ 

    ज्ञान वेदों का अक्षय 

    देता है तू महिमामय 

    और बोध सृष्टि का 

    करता है तू ही शुरु

    तू है गुरुओं का गुरु 

     

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई

    रचना दिनाँक :-  ९.९.२००८    ३.५० pm

    राग :- पीलू

    राग का गायन समय दिन का तीसरा पहर, ताल कहरवा 8 मात्रा

     

    शीर्षक :- उपदेशकों का गुरु 682 वां भजन

    *तर्ज :- *

    0116-716 

     

    बोध = ज्ञान 

    अक्षय = जिसका विनाश ना हो 

    अक्षीयमाण = कभी क्षण या निर्बल ना होने वाला

    शतधारी = सैकड़ों धाराओं वाला 

    कालातीत = सब कालों से परे

    सर्वोपरि = सबसे उत्तम 

    गरु = प्रतिष्ठित

     

    Vyakhya -

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    उपदेशकों का गुरु

    भगवान सैकड़ों प्रकार से जीव को बोध कराते हैं। यह सारी सृष्टि उसी का बोध कराती है। उसका ज्ञान कभी भी क्षीण नहीं होता। सभी ज्ञानी उसी से ज्ञान लेते हैं। किन्तु उसका स्रोत अक्षीयमान है। ऋषि कह गए हैं-- उस पूर्ण का ज्ञान लेकर भी उसके बाद पूर्ण ही शेष रह जाता है। हुआ जो वह अक्षीयमाण उत्स और साथ ही शतधार यानी सैकड़ों धाराओं वाला किंतु उसे जड़ जल न समझना वह है  महाज्ञानी। छोटा ज्ञानी भी नहीं वरन् वह  उपदेशकों का भी गुरु है।  वह परमात्मा पूर्वों का सृष्टि के आरंभ के गुरुओं का भी गुरु है,सभी गुरु कराल काल की गाल में विलय हो जाते हैं किंतु यह कालातीत है काल का भी काल है और वह है सत्य उपदेशक। मनुष्य अल्पज्ञ है उसे भ्रम हो सकता है विप्रलिप्सा=यानी ठगी की कामना भी हो सकती है अतः स्वयं बहका होने के कारण दूसरों को बहका सकता है। किंतु भगवान सत्यवाक्  है ।उनकी वाणी में असत्य का लवलेश मात्र भी नहीं है।हुए जोवे सर्वज्ञ, अतः सत्य सत्य ज्ञान का उपदेश करते हैं।

    संसार में जितना आनंद है वह उन्हीं का है। इस संसार में रखकर जीवो को वही आनंद देते हैं। उन्हें खोजने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। पत्ता पत्ता उनकी सत्ता तथा महत्ता का पता दे रहा है।

     देखो आंखें खोलो। नहीं दिखता तो उस कृपालु के वेद वचन को सुनो, तब उसे ध्यावा पृथ्वी यानी सारा संसार धार रहा है, अर्थात् पाने के लिए कहीं दूसरे स्थान पर जाने की आवश्यकता नहीं है वह सर्वत्र विद्यमान है सारे संसार में व्यापक है। भर रहा है।जो सब स्थानों में है उसे सभी स्थानों में पा सकते हैं। कैसा विचित्र है सभी स्थानों में है और दिखता नहीं क्योंकि इसे दिखाने के लिए कोई रूप नहीं है और ना ही कोई उसे आंख से देख सकता है। उसे तो हृदय और मन से देखना चाहिए क्योंकि वह सब जगह रहने वाला है। हृदय में भी रह रहा है। हृदय में रहने वाले को हृदय तथा मन से जानो और मुक्ति प्राप्त करो।

     

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