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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 59 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - मित्रः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अ॒यं मि॒त्रो न॑म॒स्यः॑ सु॒शेवो॒ राजा॑ सुक्ष॒त्रो अ॑जनिष्ट वे॒धाः। तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । मि॒त्रः । न॒म॒स्यः॑ । सु॒ऽशेवः॑ । राजा॑ । सु॒ऽक्ष॒त्रः । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । वे॒धाः । तस्य॑ । व॒यम् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिय॑स्य । अपि॑ । भ॒द्रे । सौ॒म॒न॒से । स्या॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं मित्रो नमस्यः सुशेवो राजा सुक्षत्रो अजनिष्ट वेधाः। तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। मित्रः। नमस्यः। सुऽशेवः। राजा। सुऽक्षत्रः। अजनिष्ट। वेधाः। तस्य। वयम्। सुऽमतौ। यज्ञियस्य। अपि। भद्रे। सौमनसे। स्याम॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 59; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
Bhajan -
वैदिक मन्त्र
अयं मित्रो नमस्य:सुशेवो, राजा सुक्षत्रो अजनिष्ट वेधा:।
तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्य, अपि भद्रे सौमनसे स्याम।।
ऋ•३.५९.४
वैदिक भजन ११४९ वां
राग खमाज
गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
ताल अध्धा
मित्र की है महिमा
सच्चा मित्र सम्बन्धी प्रभु सखा
सच्चा मित्र सखा
मित्र की महिमा ......
मित्र को देख के स्नेह जागता
मित्र सखा पर प्राण वारता
जब निज मित्र की इतनी क़ीमत
प्रभु की सोचो भला !!
सच्चा मित्र.......
प्रभु 'सुशेव' उत्कृष्ट सुखदाता
सच्चे सुख का ज्ञान कराता
मैत्री सम्बन्ध जो स्थापित करते
होता सबका भला।।
सच्चा मित्र......
मित्र हमारा प्रभु है राजा
विश्व सम्राट का नेक इरादा
सुधी सम्राट की मैत्री अद्भुत
दूर करें विपदा ।।
सच्चा मित्र......
वो सुक्षत्र है दु:ख का त्राता
गहरे घाव भी भरता जाता
दु:ख कष्टों का वह है वारक
जग का है वो मेधा
सच्चा मित्र.........
भाग २
मित्र की है महिमा
सच्चा मित्र सम्बन्धी प्रभु सखा
सच्चा मित्र सखा
मित्र की है महिमा
करके कुछ करते अभिमान
वास्तव में हम पंगु समान
बना सकें ना मिट्टी का कण
फिर भी करें अभिमान
सच्चा मित्र..............
मित्र प्रभु मेधावी भी है
अद्भुत जग की रचना की है
हर रचना अद्भुत शक्ति है
(है)याज्ञिक पूज्य सखा ।।
सच्चा मित्र.......
परम मित्र की पूजा करें हम
सौमनस्य सुमति पाएं हम
मित्र की भान्ति दें जग को सुख
शान्त हो प्रभु की प्रजा
सच्चा मित्र.........
26.9.2023
8.25 रात्रि
शब्दार्थ:-
सुशेव= उत्तम सुखदाता
सुधी= बुद्धिमान
सुक्षत्र= उत्तमतया विपत् त्राता
वारक= दूर करने वाला
मेधा= मेधावी
पंगु= लंगड़ा
सौमनस्य= पारस्परिक सद्भाव
सुमति= श्रेष्ठ बुद्धि
🕉🧘♂️ द्वितीय श्रृंखला का १४२ वां वैदिक भजन और
अबतक का ११४९ वां गाया हुआ वैदिक गीत
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗
Vyakhya -
नमस्करणीय मित्र
यह कैसा प्यारा शब्द है। इसे उच्चारण करते या सुनते ही मन माधुर्य से भर उठता है। सच्चा मित्र समय पर सगे सम्बन्धी से भी अधिक हित- साधन करता है। मित्र को देखकर मनुष्य स्नेह से द्रवित हो जाता है। मित्र अपने सखा के लिए प्राणों तक का बलिदान कर देता है। जब लौकिक मित्र की यह महिमा है,तब उसे दिव्य मित्र परमात्मा की महिमा का भला कौन वर्णन कर सकता है ! वह ' सुशेव 'है, उत्कृष्ट सुखदाता है। हम मानव तो अनेकों बार दु:ख को सुख मान बैठते हैं,क्योंकि आपातत: वह रम्य प्रतीत होता है। पर मित्र प्रभु जानता है कि हमारे लिए क्या सुख है और क्या दु:ख है। अतः उत्कृष्ट सच्चा सुख ही वह उन्हें प्रदान करता है जो उसे मैत्री सम्बन्ध स्थापित करते हैं।' मित्र ' प्रभु राजा है, विश्व का सम्राट है। मनुष्य किसी छोटे से पदाधिकारी को भी मित्र बनाने में गौरव अनुभव करता है, फिर वह तो सम्राट है। उसकी मैत्री तो हमें धन्य और कृतकृत्य कर सकती है। वह
'सुक्षत्र ' है, उत्तमतया विपदाओं से त्राण करनेवाला है। गहरे- से- गहरी घावों में गंभीर- से- गंभीर आपत्तियों में वह मित्र बनकर हमें स्नेह देता है और कष्ट से हमारा उद्धार करता है। मित्र प्रभु ' मेधा:' है, विधाता है, सृष्टि का रचयिता है और समस्त जीवन और उपयोगी वस्तुओं को हमारे लिए रचकर देने वाला है। हमें भले ही यह अभिमान हो जाता हो,कि हम स्वयं अपने लिए उपयोगी पदार्थों को रचने में समर्थ हैं, पर वस्तुतः हम तो इतने पंगु है की मिट्टी का एक छोटा सा पात्र भी स्वयं बनाने में असमर्थ हैं। मिट्टी जल अग्नि हमें हमारे मित्र परमात्मा ने ही दी है, जिसे कोई कुम्भकार स्वयं को मृत्पात्रों का निर्माता मानता है। जरा कुम्भार से यह तो कह कर देखो कि वह मिट्टी जल अग्नि आदि भी मित्र परमात्मा की रची हुई ना लेकर स्वयं रचे। तब वह मित्र प्रभु के प्रति नत- मस्तक हो जाएगा। मित्र प्रभु मेधावी भी हैं, उसकी मेधा के दर्शन प्रकृति को प्रत्येक रचना में होते हैं। अपने गुणों और कर्तव्यों के कारण वह मित्र हम सबके लिए 'यज्ञिय' है पूजार्ह है। आओ , उसे परम मित्र की हम पूजा करें और उसी से सुमति एवं भद्र सौमनस्य पाकर हम स्वयं भी जगत् में अन्यों के साथ मित्रता का व्यवहार करें, जिससे जगत् सुख शान्ति का परमधाम बन सके।