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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    यत्किं चे॒दं व॑रुण॒ दैव्ये॒ जने॑ऽभिद्रो॒हं म॑नु॒ष्या॒३॒॑श्चरा॑मसि । अचि॑त्ती॒ यत्तव॒ धर्मा॑ युयोपि॒म मा न॒स्तस्मा॒देन॑सो देव रीरिषः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । किम् । च॒ । इ॒दम् । व॒रु॒ण॒ । दैव्ये॑ । जने॑ । अ॒भि॒ऽद्रो॒हम् । म॒नु॒ष्याः॑ । चरा॑मसि । अचि॑त्ती । यत् । तव॑ । धर्म॑ । यु॒यो॒पि॒म । मा । नः॒ । तस्मा॑त् । एन॑सः । दे॒व॒ । रि॒रि॒षः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्किं चेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्या३श्चरामसि । अचित्ती यत्तव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । किम् । च । इदम् । वरुण । दैव्ये । जने । अभिऽद्रोहम् । मनुष्याः । चरामसि । अचित्ती । यत् । तव । धर्म । युयोपिम । मा । नः । तस्मात् । एनसः । देव । रिरिषः ॥ ७.८९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5

    Bhajan -

    आज का वैदिक भजन 🙏 1131 
    ओ३म् यत्किं चे॒दं व॑रुण॒ दैव्ये॒ जने॑ऽभिद्रो॒हं म॑नु॒ष्या॒३॒॑श्चरा॑मसि ।
    अचि॑त्ती॒ यत्तव॒ धर्मा॑ युयोपि॒म मा न॒स्तस्मा॒देन॑सो देव रीरिषः ॥
    ऋग्वेद 7/89/5

    ओ३म् यत्किं चे॒दं व॑रुण॒ दैव्ये॒ जने॑ऽभिद्रो॒हं म॑नु॒ष्या॒श्चर॑न्ति।
    अचि॑त्त्या॒ चेत्तव॒ धर्मं॑ युयोपि॒म मा न॒स्तस्मा॒देन॑सो देव रीरिषः ॥
    अथर्ववेद - काण्ड 6, सूक्त 51, मन्त्र 3

    दैव्यजन तुम हो वरुण 
    नित कृपा करने वाले
    गिरते पड़ते हुए हम 
    यत्न हैं करने वाले

    सत्य धर्म है जो तुम्हारा 
    हम अखण्डित करते 
    राजद्रोह करके बने
    खुद को ही छलने वाले 
    दैव्यजन तुम हो वरुण 
    नित कृपा करने वाले

    जो भी हमें प्राप्त है 
    ना समझे के कीमत क्या है?
    फिर भी दायित्व तुमने 
    ले रखा प्रजा का है 
    हमने जो द्रोह किया 
    लाख तुमने समझाया 
    जाने अनजाने में ना समझे 
    ये व्यवहार है क्या 
    तुम जो यह भी ना बताओ 
    कि क्यों रुष्ट हो हमसे 
    कहाँ रह जाएँगे फिर हम 
    ना सम्भलने वाले 
    दैव्यजन तुम हो वरुण 
    नित कृपा करने वाले

    जिन्दगी व्यर्थ नहीं 
    हमको यदि करना है 
    राजद्रोह त्याग के 
    अपराध नहीं करना है 
    कर नहीं सकते हमें नष्ट 
    तुम हो प्यारे वरुण !
    इसलिए चाहते हैं 
    हो समीप करके यजन 
    शुद्ध कर लें हृदय तो 
    शक्ति दो प्यारे भगवन् !
    राजद्रोह त्याग के बने 
    सत्य पे चलने वाले
    दैव्यजन तुम हो वरुण 
    नित कृपा करने वाले

    चाहे तुम से हमें निस्तार 
    मिले या कि नहीं 
    धन्य होंगे जो आशीष 
    वरुण दे दो यही 
    यह तो हम जान गए 
    तुम सचेत करते हो
    तुम भले हो हमारी भूलें
    तो संयम से सहीं 
    भावी जीवन में सम्भल जाएँ  
    वरुण कर दो सबल 
    अब लगे पाप-दुरित 
    से भी तो डरने वाले 
    दैव्यजन तुम हो वरुण 
    नित कृपा करने वाले
    गिरते पड़ते हुए हम 
    यत्न हैं करने वाले
    सत्य धर्म है जो तुम्हारा 
    हम अखण्डित करते 
    राजद्रोह करके बने
    खुद को ही छलने वाले 
    दैव्यजन तुम हो वरुण 
    नित कृपा करने वाले
       
    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :- 15.9.2021 21.00pm
    राग :- पहाड़ी
    गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल दादरा ६मात्रा
                          
    शीर्षक :- दैव्य जन और मनुष्य जन भजन 710 वां
    *तर्ज :--तुम अगर भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको
    727-00128 

    खण्डित = अलग करना
    द्रोह = नुकसान पहुंचाने की आदत, दुश्मनी
    दायित्व = जिम्मेदारी
    रुष्ट = नाराज
    निस्तार = पार लगाना,मोक्ष
    सचेत = आगाह करना, सावधान
    भावी = भविष्य
    दुरित = बुराइयां, दुर्गुण
     

    Vyakhya -

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
    दैव्य जन और मनुष्य जन

    हे वरुण तुम जान हो तो दही व्यंजन हो--पर हम गिरते-पड़ते उठने का यत्न करने वाले जन हैं। हे देव! हम मनुष्यों पर दया करो, हम तुम्हारी दया के पात्र हैं। हम बेशक तुम्हारा विरोध करने वाले बड़े भारी अपराधी होते रहते हैं। तुम्हारे धर्मों का लॉक करना सचमुच बड़ा द्रोह है। जो कुछ हमें मिल रहा है वह सब-कुछ तुम ही से मिल रहा है और वह सब इसलिए मिल रहा है, क्योंकि तुम्हारे धर्म सत्य हैं। अखंड हैं। यदि तुम्हारे धर्म कभी खंडित हो सकें तो तुम तुम ना रहो, पर इन्हीं तुम्हारे सत्य धर्मों को (जिनके कारण हमें यह सब कुछ मिल रहा है) हम लोग अपने व्यवहार में लोग कर देते हैं। यह कितना बड़ा द्रोह है? यह तुम्हारे सनातन धर्म हमारे व्यवहार में, क्षमा,दम, अस्तेय, आदि रूपों में प्रकट होते हैं पर हम इनका परिपालन ना कर तुम सर्वदाता प्रभु के द्रोही होते रहते हैं। फिर भी है देव! हमारी तुम से प्रार्थना है कि हम मैं सहन करो, हमें कठोर दंड देखकर हमारा नाम मत करो! क्योंकि यह सब धर्म भंग हम जानबूझकर नहीं करते। जो कुछ हमसे धर्म -लोप होता है वह अज्ञान से, प्रमाद से, असावधानी से होता है। अब हम कभी जान-बूझकर अधर्म आचरण में नहीं प्रवृत्त होते, पर यह अज्ञान की, बेखबर की भूले होते रहना तो हम मनुष्यों के लिए अस्वाभाविक नहीं है। हम तुम्हारी दया के पात्र हैं। हे वरुण राजन! हम जानते हैं कि राजद्रोह बड़ा भारी अपराध है। तुम्हारे सच्चे पूर्ण कला में राज्य का विरोध करना आत्मघाती करना है। अतएव अब हम अपनी शक्ति- भर और जान-बूझकर तुम प्यारे कानपुर कैसे कर सकते हैं? पर तुम भी हमारे अज्ञान से किए अपराधों को क्षमा करो, किंतु नहीं, हो तुमसे हम क्षमा के लिए क्यों कहें ? तुम तो हमारा विनाश कर ही नहीं सकते। तुम जो भी कुछ करोगे हमारा कल्याण ही करोगे--यह निश्चित है। फिर तुम से प्रार्थना तो इसलिए है कि इस द्वारा हम तुम्हारे कुछ और अधिक नज़दीक हो जाएं, हमारा हृदय शुद्ध हो जाए, क्योंकि तुम्हारे आगे रो लेने से हृदय की शुद्धि हो जाती है और भविष्य के लिए धर्म-भंग होने की संभावना और-और कम हो जाती है।

    🕉🧘‍♂️ईश भक्ति भजन
    भगवान् ग्रुप द्वारा 🎧🙏
    सभी वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद🙏💕

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