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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
    ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स न॒: पप्रि॑: पारयाति स्व॒स्ति ना॒वा पु॑रुहू॒तः । इन्द्रो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । पप्रिः॑ । पा॒र॒या॒ति॒ । स्व॒स्ति । ना॒वा । पु॒रु॒ऽहू॒तः । इन्द्रः॑ । विश्वा॑ । अति॑ । द्विषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स न: पप्रि: पारयाति स्वस्ति नावा पुरुहूतः । इन्द्रो विश्वा अति द्विष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । पप्रिः । पारयाति । स्वस्ति । नावा । पुरुऽहूतः । इन्द्रः । विश्वा । अति । द्विषः ॥ ८.१६.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 16; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 5

    Bhajan -

    आज का वैदिक भजन 🙏 1177 
    ओ३म्  स न॒: पप्रि॑: पारयाति स्व॒स्ति ना॒वा पु॑रुहू॒तः ।
    इन्द्रो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विष॑: ॥
    ऋग्वेद 8/16/11

    डोले जीवन की नैया 
    पार लगा दे खिवैया 
    बार-बार तुझे पुकारा 
    माँझी बन जा हमारा 
    डोले जीवन की नैया 

    जीवन भर द्वेष किया 
    बदले में द्वेष लिया 
    शत्रुता जागी मन में 
    दु:ख ने तड़पाया जिया 
    दुष्कृत का सिन्धु उमड़ा 
    द्वेष ने ही डुबोया 
    बार बार तुझे पुकारा 
    माँझी बन जा हमारा 
    डोले जीवन की नैया 

    डूबने के भय से आखिर 
    उद्विग्न यह मन जागा 
    और पूज्य 'पप्रि' पिता को 
    आवाहन करने लागा 
    प्रभु सहायक बन गए 
    क्षुद्रता को दूर किया 
    बार बार तुझे पुकारा 
    माँझी बन जा हमारा 
    डोले जीवन की नैया 

    'पुरुहूत' दक्ष ईश्वर 
    सुन ले हमारी पुकार 
    शरण रूपी नाव बढ़ा ले 
    द्वेषों से कर दे पार 
    कुशल-क्षेम प्रेम को पाएँ 
    सात्विक दो सम्पदा 
    बार बार तुझे पुकारा 
    माँझी बन जा हमारा 
    डोले जीवन की नैया 

    पा ही जो लिया सहारा 
    निर्भीक बन गए हम 
    परिपूर्ण प्रेम जो पाया 
    विस्तृत हुआ हृदय-मन 
    द्वेष की वासना अब 
    ठहरेगी कैसे भला?
    बार-बार तुझे पुकारा 
    माँझी बन जा हमारा
    डोले जीवन की नैया 
    पार लगा दे खिवैया 
    बार-बार तुझे पुकारा 
    माँझी बन जा हमारा 
    डोले जीवन की नैया 
     
    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--   ३०.११.२०२१  २३.२५रात्रि

    राग :- मांज खमाज
    गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा

    शीर्षक :- पूर्ण करने वाले परमेश्वर वैदिक भजन ७५३ वां
    *तर्ज :- *
    00152-752

    दुष्कृत = पाप, बुरा कर्म
    उद्विग्न = चिन्तित,परेशान
    पप्रि = पूर्ण करने वाले
    क्षुद्रता = तुच्छता, ओछापन
    पुरुहूत = बहुतों से पुकारे गए
    आवाहन = पुकारना
    कुशल-क्षेम = सुखी और स्वस्थ रहने की दशा, खैरियत
     

    Vyakhya -

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
    पूर्ण करने वाले परमेश्वर

    वे 'पप्रि' परमेश्वर और 'पुरुहूत' परमेश्वर हमें पार लगावें। हम उन प्रभु का स्मरण कर रहे हैं जो पूर्ण करने वाले हैं, कमियों को भरपूर कर देने वाले हैं और उन प्रभु को पुकार रहे हैं जिन्हें संत लोग सदा पुकारते हैं और जिन्हें सब लोग समय-समय पर पुकारते रहते हैं। वही प्रभु हमें इस द्वेष-सागर से पार लगाएं। हमने बहुत द्वेष किया है और बहुत द्वेष पाया है। बहुतों से शत्रुता की है और बहुतों को शत्रु बनाया है। हमें इस समय सब जगह अपने द्वेषी नज़र आते हैं, सब जगह अपने शत्रु -ही- शत्रु दिखाई देते हैं। हम इनसे कैसे पार उतरें? यह और कुछ नहीं है, हमारे ही अन्तर की द्वेष-भावना दुस्तर समुद्र बनकर हमारे सामने आ गई है। 
    जब हमें ज्ञान हुआ है तब से हम उन 'पप्रि' प्रभु की ही याद में रहने लगे हैं। हम जान गए हैं कि यदि वे पूर्ण करने वाले हमें अपनी शरण रूपी नौका प्रदान कर देंगे तो हम कुशल- क्षेम से इस भयंकर द्वेष- सागर को तर जाएंगे। हम जान गए हैं कि यदि हमारे हृदय की क्षुद्रताओं के गड्ढे भरपूर हो जाएंगे और हमारा हृदय विशाल तथा प्रभु के प्रेम से परिपूर्ण हो जाएगा तो हमारे अन्दर द्वेष की वासना भी नहीं ठहर सकेगी। इसलिए अब हम उस पूर्ण करने वाले प्रभु को ही पुकार रहे हैं, बार- बार पुकार रहे हैं। 
    ओह! अब तो वही पुरुहूत 'पप्रि' परमेश्वर हमें इस द्वेष- सागर से पार लगाएं, इस दुस्तर सागर से पार उतारें।
     

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