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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 61/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ये ते॑ प॒वित्र॑मू॒र्मयो॑ऽभि॒क्षर॑न्ति॒ धार॑या । तेभि॑र्नः सोम मृळय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते॒ । प॒वित्र॑म् । ऊ॒र्मयः॑ । अ॒भि॒ऽक्षर॑न्ति । धार॑या । तेभिः॑ । नः॒ । सो॒म॒ । मृ॒ळ॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते पवित्रमूर्मयोऽभिक्षरन्ति धारया । तेभिर्नः सोम मृळय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । पवित्रम् । ऊर्मयः । अभिऽक्षरन्ति । धारया । तेभिः । नः । सोम । मृळय ॥ ९.६१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 61; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 5

    Bhajan -

      वैदिक मन्त्र
    ये ते पवित्रमूर्मयोऽभिक्षरन्ति धारया।
    तेभिर्न: सोम मृळय ।।ऋ•,९.६१.५  सा•उ•२/१/५
                   वैदिक भजन ११२५वां
                            राग भैरवी
                   गायन समय चारों प्रहर
                            ताल अद्धा

                          आज भाग १
    क्या मिला होगा 
    जब सोम की धारा होगी
    शीतल हृदय होगा
    अमृत की वर्षा होगी।।

    मानस को पवित्र बना रहा हूं 
    जग-व्यापक धार तरंगे उठें 
    हे सोम!न क्षुद्र तरंगे उठें 
    सुखदायक ज्ञानामृत ही बहे ।।
    मानस को........
    इन धाराओं में तुम व्याप्त रहे 
    जिससे जीवन- रस सूखा नहीं 
    जीवनदायी यह दिव्य धारा 
    अन्तःकरणों में उदित हुई 
    जैसे चन्द्रमा आकर्षण से 
    ज्वार-भाटा समुद्र के जल में उठे (२)
    मानस को..........
    मानव के मन के सरोवर में 
    तेरी सोम- धारा का आकर्ष हुआ 
    ऊंचा-ऊंचा व्यापक भावावेश 
    जो सनातन है, किया मन में प्रवेश 
    हे सोम !तुम्हीं यह कृपा करो 
    मन -सोम-सरोवर उमड़ उठे(२)पड़े 
    मानस को...........
    विश्वप्रेम, अदम्य-उत्साह, जगे 
    सर्वार्पण, वीरता उमंग भरे 
    दु:खियों पर दया और प्रेम जगे 
    तेरी व्यापक धारानुकूल रहे 
    और अन्तःकरण पवित्र बने 
    महाशक्तिमति धार हित ही करे (२)
    मानस को.........
    हे सोम !...........

           ‌         ‌‌    शब्दार्थ अंत में
                         परसों भाग २👇
    मानस को पवित्र बना रहा हूं 
    जग- व्यापक धार तरंगे उठें 
    हे सोम ! न क्षुद्र तरंगे उठें 
    सुखदायक ज्ञानामृत ही बहे 
    मानस को...........
    महाशक्तिमती के द्वारा प्रभु !
    तेरी उर्मियां अभिरक्षित कर दें 
    तेरी सोम- तरंगे सत्यमयी 
    हैं व्यापक सुख आनन्द भर दे 
    ये राग, द्वेष के भावावेश की 
    क्षुद्र तरंगों को हर ले(२)।।
    मानस को........
    एकपक्षीय ज्ञान की क्षुद्र तरंग
    हर समय क्षुब्ध करती है मन 
    शंका,भय, उत्कंठा, तृष्णा, अनुराग 
    मोह ईर्ष्या है विपन्न
    उठती जिससे क्लेषरूप तरंग 
    जो सुख त्यागे और दु:ख दे दे (२)।।
    मानस को..........
    इसलिए हे सोम! मानस में मेरे 
    तेरी पवित धारा को बहने दे 
    जो मेरे हृदय को शुद्ध करे
    और हृदय सुक्षेत्र में सुख भर दे 
    बारम्बार ऊंची तरंग उठे 
    तन्मग्न तुझे अनुभूत करें(२)।।
    मानस में.......
                   २५.७.२०२३
                    ८.३५ रात्रि
                      शब्दार्थ:-
    मानस= मन
    क्षुद्र=नीच,अधम
    उदित=उदय प्राप्त, प्रकाशित
    आकर्ष=खिंचाव
    भावावेश=भाव की अधिकता के कारण होने वाला आवेश
    अदम्य=प्रबल, प्रचंड
    महाशक्तिमती=
    ऊर्मी=लहरों से युक्त
    अभिरक्षित=जिसकी रक्षा की गई हो
    क्षुब्ध=परेशान,विकल
    उत्कंठा=तीव्र अभिलाषा, उतावली इच्छा
    विपन्न=दु:खी, विपत्ति ग्रस्त
    पवित= पवित्र, शुद्ध
    हृदय-सुक्षेत्र=हृदय का उपजाऊ क्षेत्र
    तन्मग्न=मग्न हुआ हुआ शरीर
    अनुभूत=अनुभव किया हुआ,आजमाया हुआ

    वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का ११८ वां वैदिक भजन ।
    और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का ११२५ वां वैदिक भजन 
    वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को  हार्दिक शुभकामनाएं !
    🕉️🙏🌷🌺🥀🌹💐

     

    Vyakhya -

    तेरी तरङ्गें
    मानसरोवर में कुछ-न- कुछ तरंगे सदा उठा ही करती हैं। चारों ओर होने वाली घटनाओं से मनुष्य का मानस- सर नाना प्रकार से क्षुब्ध होता रहता है, परन्तु  हे सोम! मैं अपने मानस को पवित्र बना रहा हूं। इसलिए पवित्र बना रहा हूं जिससे कि इसमें तेरी जगत् व्यापक धारा से आई हुई तरंगे ही पैदा हों; अन्य किसी प्रकार की क्षुद्र तरंगें पैदा ना हों। हे सोम! अपनी शीतल- सुखदायिनी और ज्ञानामृतवर्षिनी धाराओं से तुमने इस जगत् को व्याप्त कर रखा है। इन्हीं द्वारा यह जगत् धारित हुआ है, नहीं तो इस जगत् का सब जीवन-रस ना जाने कब का सूख चुका होता। मैं देखता हूं कि तुम्हारी इस जीवनरसदायिनी दिव्य  धारा का मनुष्यों के पवित्र हुए अन्तःकरणों के प्रति एक आकर्षण उत्पन्न हो जाया करता है।जैसे कि चन्द्रमा के (भौतिक सोम के) आकर्षण से समुद्र- जल में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता रहता है, उसी तरह हे सच्चे सोम! मनुष्य के पवित्र हुए मन:सरोवर में भी तेरी सोमधारा के महान् आकर्षण से उच्च तरंगें उठने लगती हैं। ऊंचे- ऊंचे, व्यापक, सनातन भावावेश(emotions) उठने लगते हैं। विश्वप्रेम, वीरता, अदम्य उत्साह, सर्वार्पण कर डालने की उमङ्ग, दु:खितमात्र पर दया इत्यादि ऐसे सनातन व्यापक भावावेश हैं जो तेरी जगद्- धारक महान् धारा के अनुकूल हैं। बस, पवित्र हुए अंतःकरणों में तेरी महाशक्तिमती   धारा के अनुसार यह ही तेरी ऊर्मियां, तेरी तरंगे अभिक्षरित हुआ करती हैं। हे सोम! मुझे अब इन्हीं 
    सत्यमयी व्यापक तरंगों में मन में उठने से सुख मिलता है। वह राग द्वेष की हवा से उठने वाली क्षुद्र भावावेषों (emotions)की तरंगे, वे मन को क्षुब्ध करने वाले एकपक्षीय ज्ञान से होने वाले छोटे-छोटे अनुराग, मोह, शंका, भय, उत्कंठा, कामना आदि की तरंगें मुझे सुख नहीं देती, किन्तु क्लेश रूप दिखाई देती हैं। इसलिए, हे मेरे सोम! मेरे मानस में उन्हीं तरंगों को उठाकर मुझे सुखी करो जो तरंगे पवित्र हृदयों में तुम्हारी धारा से उठती हैं। बस, ये उच्च भावावेश, ये ही व्यापक सनातन  महान भावावेश, मेरे मानस में उठा करें--ये ही तरंगे बार-बार उठें, खूब उठें, खूब ऊंची-ऊंची उठें--ऐसी उठें और महान् उठें की इन आनन्ददायक भावावेषों
    में उठता हुआ मैं तन्मग्न होकर तेरी ऊंचाई के संस्पर्श का सुख अनुभव कर सकूं।

     

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