ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
यो जा॒त ए॒व प्र॑थ॒मो मन॑स्वान्दे॒वो दे॒वान्क्रतु॑ना प॒र्यभू॑षत्। यस्य॒ शुष्मा॒द्रोद॑सी॒ अभ्य॑सेतां नृ॒म्णस्य॑ म॒ह्ना स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥
स्वर सहित पद पाठयः । जा॒तः । ए॒व । प्र॒थ॒मः । मन॑स्वान् । दे॒वः । दे॒वान् । क्रतु॑ना । प॒रि॒ऽअभू॑षत् । यस्य॑ । शुष्मा॑त् । रोद॑सी॒ इति॑ । अभ्य॑सेताम् । नृ॒म्णस्य॑ । म॒ह्ना । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो जात एव प्रथमो मनस्वान्देवो देवान्क्रतुना पर्यभूषत्। यस्य शुष्माद्रोदसी अभ्यसेतां नृम्णस्य मह्ना स जनास इन्द्रः॥
स्वर रहित पद पाठयः। जातः। एव। प्रथमः। मनस्वान्। देवः। देवान्। क्रतुना। परिऽअभूषत्। यस्य। शुष्मात्। रोदसी इति। अभ्यसेताम्। नृम्णस्य। मह्ना। सः। जनासः। इन्द्रः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
मन्त्रार्थ -
इस सूक्त का देवता इन्द्र है। जो अध्यात्म में परमात्मा और आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र व्याप्त विद्य देव है । जैसे अन्यत्र वेद में कहा है- 'यदिन्द्र दिवि पार्ये यदृग्यद्वा स्वे सदने यत्र वासि ।' ”(ऋ० ६।४०।५)" (यस्य) विद्युदाख्यस्य (यः) कारणाख्यो विद्युदग्निः” (ऋ० २।१२।७) पदार्थे दयानन्दः (यः-जात:-एव) जो प्रसिद्धि को प्राप्त या प्रादुर्भूत होता हुआ ही (प्रथमः-मनवान्) प्रथम-सर्वप्रथम मन जैसे वेगपूर्ण बल वाला (देव:-देवान् क्रतुना पर्यभूषत्) ऐसा देव अन्य देवों को अपने बल कर्म से परिभूत करता है-परिगृहीत करता हैस्वाधीन करता है- घेर लेता है-प्रतिक्रान्त कर लेता है 'भूधातो: क्सो लुङि' (यस्य शुष्मात्-रोदसी-अभ्यसेताम्) जिसके बल से "शुष्मं बलम्" [निघं० २।६] द्यलोक पृथिवीलोक-ऊपर नीचे के दोनों लोक "रोदसी द्यावापृथिवी नाम" [नि०घं ३|३०] भय कर जाते हैं, डरे जाते से हैं "भ्यस भये" [स्वादि०] (नृम्णस्य मह्ना) एवं जिसके बल के महत्त्व से "नृम्णं बलनाम्" [निघं० २।६] ऐसे सब कृत्य होते हैं (जनासः सः-इन्द्रः) हे जनो! वह इन्द्र देव है विश्वाकाश में व्याप्त विद्युत् तत्व है अध्यात्म में परमात्मा है ॥१॥
टिप्पणी -
इस सूक्त पर 'बृहद्देवता' आदि इतिहासप्रदर्शक ग्रन्थों में कहीं यह लिखा है कि (१) गृत्समद ऋषि तप के प्रभाव से इन्द्र का रूप धारण कर मुहूर्त्त भर द्युलोक में आकाश में और इस लोक में दिखलाई दिया, उस पर धुनि और चुमुरि दैत्य टूट पडे इन्द्र समझ कर, तब अपने को बचाने के लिए ऋषि ने “यो जात एव प्रथमो मनस्वान्" इस सूक्त से इन्द्र का स्वरूप बताया [इस कल्पना में यह दोष कि दैत्य दो हैं और मन्त्रों में 'जनासः' बहुवचन है- ब्रह्ममुनि] कहीं पर कहा है कि (२) इन्द्र आदि देवता वैन्य के यश में गये वहां गृत्समद ऋषि- भी ग्राकर बैठा था तब इन्द्र को मारने की इच्छा से दैत्य भी आए के उन्हें देख इन्द्र गृत्समद का रूप धारण कर यज्ञ से निकल गया पुनः गृत्समद को यज्ञ बाड़े से निकलते देख दैत्यों-असुरों ने उसे इन्द्र समझ कर घेर लिया, उसने इस सूक्त द्वारा इन्द्र का स्वरूप बताया मैं इन्द्र नहीं हूँ । तथा कहीं पर कहा कि (३) गृत्समद के यज्ञ में अकेले इन्द्र को जान कर असुरों ने घेर लिया वह इन्द्र गृत्समद का रूप धारण कर यज्ञमण्डप से निकल स्वर्ग को चला गया, परन्तु असुरों ने 'इन्द्र ने बाहिर थाने में देर की अन्दर ही है' ऐसा समझ अन्दर प्रविष्ट हो गृत्समद को पकड लिया कि यही इन्द्र है भय से गृत्समद रूप में बैठा है उसने इस सूक्त के द्वारा इन्द्र का स्वरूप बताया मैं इन्द्र नहीं हूं [दूसरी और तीसरी कल्पना भी अन्यथा है भला जब कि सूक्त में इन्द्र का स्वरूप अत्यन्त शक्तिमान् बतलाया पर्वतों समुद्रों को छिन्न-भिन्न करदे द्युलोक पृथिवी लोक को भी कम्पा देता है वज्रधारी महान् बलवान् है इत्यादि ऐसे इन्द्र का असुरों से डरने का क्या प्रसङ्ग और असुर भी ऐसे शक्तिशाली का कुछ भी नहीं बिगाड सकते, अतः सब अयुक्त कल्पना है— ब्रहामुनि]
विशेष - ऋषि:-गृत्समदः (मेधावी प्रसन्न जन" गृत्स:-मेधाविनाम" [निव० ३।१५]) देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)
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