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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
न॒हि वो॒ अस्त्य॑र्भ॒को देवा॑सो॒ न कु॑मार॒कः । विश्वे॑ स॒तोम॑हान्त॒ इत् ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । वः॒ । अस्ति॑ । अ॒र्भ॒कः । देवा॑सः । न । कु॒मार॒कः । विश्वे॑ । स॒तःऽम॑हान्तः । इत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि वो अस्त्यर्भको देवासो न कुमारकः । विश्वे सतोमहान्त इत् ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । वः । अस्ति । अर्भकः । देवासः । न । कुमारकः । विश्वे । सतःऽमहान्तः । इत् ॥ ८.३०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
मन्त्रार्थ -
आधिभौतिक दृष्टि से-(विश्वेदेवासः) हे सब प्रकार के विद्वानों ! (वः) तुम्हारे में कोई भी (अर्भक:) ज्ञानगुणों से अवृद्ध या अन्य विरोधी से दबाये जाने योग्य "अर्भके अवृद्धे" ( निरु० ४।१५) "अर्भकमवहृतम्” (निरु० ३।२०) (न हि-अस्ति) नहीं है (न कुमारकः) और न अल्प शक्ति वाला बालक “अल्पे” (अष्टा० ५।३।८५) (सतः-महान्तः-इत्) किन्तु किसी सद्गुणी और सत्ताधरी से भी तुम महान् हो । अध्यात्मिक दृष्टि से-हे सब प्रकार के दिव्य प्राणो ! देववृत्तियो ! तुम्हारे में कोई भी निर्बल नहीं है। न हीन है किन्तु तुम सब सद्गुणी और शक्तिशाली से ऊँचे हो ॥१॥
विशेष - ऋषि:- वैवस्वतो मनुः (विवस्वान् समस्त संसार में राजनीति प्रचारक विद्वान् का शिष्य मननशील राजा) "मनुर्वैवस्वतो राजेत्याह” (शत० १३|४|३|३) तथा समस्त संसार में विशेष वास करने वाले परमात्मा का उपासक मननकर्त्ता देवता- विश्वेदेवाः सब प्रकार के विद्वान् तथा दिव्यप्रारण - देववृत्तियाँ “प्रारणा वै विश्वदेवाः" (शत० १४।२।२।३७)
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