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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    त्वेऽअ॑ग्ने स्वाहुत प्रि॒यासः॑ सन्तु सू॒रयः॑।य॒न्तारो॒ ये म॒घवा॑नो॒ जना॑नामू॒र्वान् दय॑न्त॒ गोना॒म्॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वेऽइति॒ त्वे। अ॒ग्ने॒। स्वा॒हु॒तेति॑ सुऽआहुत। प्रि॒यासः॑। स॒न्तुः॒। सू॒रयः॑ ॥ य॒न्तारः॑ ये। म॒घवा॑न॒ इति॑ म॒घऽवा॑नः। जना॑नाम्। ऊ॒र्वान्। दय॑न्त। गोना॑म् ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वेऽअग्ने स्वाहुत प्रियासः सन्तु सूरयः । यन्तारो ये मघवानो जनानामूर्वान्दयन्त गोनाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेऽइति त्वे। अग्ने। स्वाहुतेति सुऽआहुत। प्रियासः। सन्तुः। सूरयः॥ यन्तारः ये। मघवान इति मघऽवानः। जनानाम्। ऊर्वान्। दयन्त। गोनाम्॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -
    हे (स्वाहुत) सुन्दर प्रकार से विद्या को ग्रहण किये हुए (अग्ने) विद्वन्! (ये) जो (जनानाम्) मनुष्यों के बीच वीर पुरुष (यन्तारः) जितेन्द्रिय (मघवानः) बहुत धन से युक्त जन (गोनाम्) पृथिवी वा गौ आदि के (ऊर्वान्) हिसकों को (दयन्त) मारते हैं, वे (सूरयः) विद्वान् लोग (त्वे) आपके (प्रियासः) पियारे (सन्तु) हों॥१४॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जैसे विद्वान् लोग अग्नि आदि पदार्थों की विद्या को ग्रहण कर विद्वानों के पियारे हो, दुष्टों को मार और गौ आदि की रक्षा कर मनुष्यों के पियारे होते हैं, वैसे तुम भी करो॥१४॥

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