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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1459
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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प्र꣣भङ्गी꣡ शूरो꣢꣯ म꣣घ꣡वा꣢ तु꣣वी꣡म꣢घः꣣ स꣡म्मि꣢श्लो वी꣣꣬र्या꣢꣯य꣣ क꣢म् । उ꣣भा꣡ ते꣢ बा꣣हू꣡ वृष꣢꣯णा शतक्रतो꣣ नि꣡ या वज्रं꣢꣯ मिमि꣣क्ष꣡तुः꣢ ॥१४५९॥

स्वर सहित पद पाठ

प्रभङ्गी꣢ । प्र꣣ । भङ्गी꣢ । शू꣡रः꣢꣯ । म꣣घ꣡वा꣢ । तु꣣वी꣡म꣣घः । तु꣣वि꣢ । म꣣घः । सं꣡मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । वी꣢꣯र्याय । कम् । उ꣣भा꣢ । ते꣣ । बाहू꣡इति꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णा । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । नि꣢ । या । व꣡ज्र꣢꣯म् । मि꣣मिक्ष꣡तुः꣢ ॥१४५९॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रभङ्गी शूरो मघवा तुवीमघः सम्मिश्लो वीर्याय कम् । उभा ते बाहू वृषणा शतक्रतो नि या वज्रं मिमिक्षतुः ॥१४५९॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रभङ्गी । प्र । भङ्गी । शूरः । मघवा । तुवीमघः । तुवि । मघः । संमिश्लः । सम् । मिश्लः । वीर्याय । कम् । उभा । ते । बाहूइति । वृषणा । शतक्रतो । शत । क्रतो । नि । या । वज्रम् । मिमिक्षतुः ॥१४५९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1459
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे जगदीश्वर ! आप (प्रभङ्गी) दुष्टों और दुर्गुणों के तीव्र भञ्जक, (शूरः) वीर, (मघवा) ऐश्वर्यवान्, (तुवीमघः) बहुत दानी और (वीर्याय) हमें बल प्रदान करने के लिए (कम्) निश्चय ही (सम्मिश्लः) हमसे मिलनेवाले, हमारे साथ सखित्व स्थापित करनेवाले हो। हे (शतक्रतो) बहुत प्रज्ञा तथा बहुत कर्मोंवाले ! (उभा) दोनों (वृषणा) वर्षा करनेवाले वायु और सूर्य (ते) आपकी (बाहू) बाहुएँ हैं, (या) जो (वज्रम्) जल को (नि मिमिक्षतुः) निरन्तर सींचा करती हैं ॥२॥ यहाँ वर्षक वायु और सूर्य में बाहुओं के आरोप के कारण रूपक अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थ - जैसे कोई बाहुधारी मनुष्य बाहुओं में घड़ा आदि पकड़कर भूमि पर जल सींचता है, वैसे ही जगदीश्वर वायु और सूर्य रूप बाहुओं में मेघ रूप घड़े को लेकर वर्षाजल भूमि पर बरसाता है ॥२॥ इस खण्ड में सूर्य के वर्णन द्वारा तथा प्रत्यक्षतः भी परमात्मा की महिमा का वर्णन होने से और उसके प्रति प्रार्थना होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ तेरहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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