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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 284
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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मो꣡ षु त्वा꣢꣯ वा꣣घ꣡त꣢श्च꣣ ना꣢꣫रे अ꣣स्म꣡न्नि री꣢꣯रमन् । आ꣣रा꣡त्ता꣣द्वा सध꣣मा꣡दं꣢ न꣣ आ꣡ ग꣢ही꣣ह꣢ वा꣣ स꣡न्नुप꣢꣯ श्रुधि ॥२८४॥
स्वर सहित पद पाठमा꣢ । उ꣣ । सु꣢ । त्वा꣣ । वाघ꣡तः꣢ । च꣣ । न꣢ । आ꣣रे꣢ । अ꣣स्म꣢त् । नि । री꣣रमन् । आरा꣡त्ता꣢त् । वा꣣ । सधमा꣡द꣢म् । स꣣ध । मा꣡द꣢꣯म् । नः꣣ । आ꣢ । ग꣣हि । इह꣢ । वा꣣ । स꣢न् । उ꣡प꣢꣯ । श्रु꣣धि ॥२८४॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु त्वा वाघतश्च नारे अस्मन्नि रीरमन् । आरात्ताद्वा सधमादं न आ गहीह वा सन्नुप श्रुधि ॥२८४॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । उ । सु । त्वा । वाघतः । च । न । आरे । अस्मत् । नि । रीरमन् । आरात्तात् । वा । सधमादम् । सध । मादम् । नः । आ । गहि । इह । वा । सन् । उप । श्रुधि ॥२८४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 284
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ -
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे इन्द्र परमात्मन् ! (वाघतः) हमारे शरीर-यज्ञ के ऋत्विज् इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि (च न) निश्चय ही (त्वा) तुझे (अस्मत्) हमसे (आरे) दूर (मा उ सु) मत (निरीरमन्) रमायें अर्थात् इन्द्रिय आदियों से विषयों में आकृष्ट हुआ मैं तुझे अपने पास से दूर न रखूँ। तू (आरात्ताद् वा) दूर से भी (नः) हमारे (सधमादम्) जीवन-यज्ञ या उपासना-यज्ञ में (आ गहि) आ, (इह वा सन्) और यहीं हृदय में रहता हुआ (उपश्रुधि) हमारी स्तुति और प्रार्थना को सुन ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (वाघतः) बुद्धिमान् राजमन्त्री, नगराधीश आदि राज्याधिकारी (च न) निश्चय ही (त्वा) तुझे (अस्मत्) हमसे (आरे) दूर (मा उ सु) मत (निरीरमन्) रोकें, अर्थात् तुझ राजा को हमारे लिए सुलभ करायें। हे राजन् ! (आरात्ताद् वा) सुदूरस्थ भी अपनी राजधानी से, तू (नः) हमारे (सधमादम्) यज्ञ-समारोह में (आ गहि) आ, (इह वा सन्) और यहीं हमारे मध्य में विराजमान होता हुआ तू (उपश्रुधि) हमारे सुखदुःखादि के निवेदन को सुन ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। रेफ की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥२॥
भावार्थ - राजराजेश्वर परमात्मा और मानव राजा हम प्रजाजनों को सदा सुलभ रहता हुआ हमारे सुख-दुःख को जाने ॥२॥
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