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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 124
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣दं꣡ व꣢सो सु꣣त꣢꣫मन्धः꣣ पि꣢बा꣣ सु꣡पू꣢र्णमु꣣द꣡र꣢म् । अ꣡ना꣢भयिन्ररि꣣मा꣡ ते꣢ ॥१२४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣द꣢म् । व꣣सो । सुत꣢म् । अ꣡न्धः꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ । सु꣡पू꣢꣯र्णम् । सु । पू꣣र्णम् । उद꣡र꣢म् । उ꣣ । द꣡र꣢꣯म् । अ꣡ना꣢꣯भयिन् । अन् । आ꣣भयिन् । ररिम꣢ । ते꣣ ॥१२४॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं वसो सुतमन्धः पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन्ररिमा ते ॥१२४॥
स्वर रहित पद पाठ
इदम् । वसो । सुतम् । अन्धः । पिब । सुपूर्णम् । सु । पूर्णम् । उदरम् । उ । दरम् । अनाभयिन् । अन् । आभयिन् । ररिम । ते ॥१२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 124
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(वसो) हे मेरे हृदय में एवं मेरे में बसने वाले परमात्मन्! (इदं सुतम्) इस निष्पन्न (उत्-अरम्) ऊपर गमनशील उभरनेवाले—उछलनेवाले (अन्धः) सोम—
भावार्थ - मेरे हृदय मेरे आत्मा में बसनेवाले निर्भयशरण परमात्मन्! तू मेरे अन्दर उभरते-उछलते हुए समस्त आत्मभावना से पूर्ण सोम्य हावभाव भरे स्तुति प्रार्थना उपासनारूप रसधारा प्रवाह को पानकर स्वीकार कर तेरी भेंट करता हूँ, तू मुझे अपना ले मैं तेरी निर्भयशरण में रहूँ, क्योंकि तेरा स्वभाव है “देहि मे ददामि ते” [यजुः॰ ३.५०] मुझे दे तुझे देता हूँ॥१०॥
टिप्पणी -
“अन्धसः सोमस्य” [निरु॰ १३.८] “अन्धसस्पते सोमस्य पते” [श॰ ४.१.१.२४] सोम्य हावभाव भरे स्तुति प्रार्थना उपासनारसधाराप्रवाह को (सुपूर्णम्) जो भलीभाँति पूर्ण है, समस्त आत्मभावना से भरा हुआ है उसे (पिब) पानकर स्वीकार कर (अनाभयिन्) ‘आभयम्-ईषद्भयं नेषद्भयं यस्मिन्-यस्याश्रये तथाभूतं’ थोड़ा भी भय जिसके आश्रय में नहीं वह ऐसे सर्वथा निर्भयशरणवाले परमात्मन्! (ते ररिमा) तेरे लिये हम देते हैं—समर्पित करते हैं। जैसे अन्यत्र भी कहा है—न घा॑ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत्कामं॑ पुरुहूत शिश्रय। राजे॑व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्त्सु सोमे॑ऽव॒पान॑मस्तु ते॥२॥—[ऋ० १०.४३.२]
विशेष - ऋषिः—प्रियमेधः काण्वः (मेधावी का शिष्य मेधाप्रिय जिसको है ऐसा जन)॥<br>
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