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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 133
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ घा꣣ ये꣢ अ꣣ग्नि꣢मि꣣न्ध꣡ते꣢ स्तृ꣣ण꣡न्ति꣢ ब꣣र्हि꣡रा꣢नु꣣ष꣢क् । ये꣢षा꣣मि꣢न्द्रो꣣ यु꣢वा꣣ स꣡खा꣢ ॥१३३॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । घा꣣ । ये꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । इ꣣न्ध꣡ते꣢ । स्तृ꣣ण꣡न्ति꣢ । ब꣣र्हिः꣢ । अ꣣नुष꣢क् । अ꣣नु । स꣢क् । ये꣡षा꣢꣯म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । यु꣡वा꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । ॥१३३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ घा ये अग्निमिन्धते स्तृणन्ति बर्हिरानुषक् । येषामिन्द्रो युवा सखा ॥१३३॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । घा । ये । अग्निम् । इन्धते । स्तृणन्ति । बर्हिः । अनुषक् । अनु । सक् । येषाम् । इन्द्रः । युवा । सखा । स । खा । ॥१३३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 133
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(येषाम्) जिनका (युवा-इन्द्रः) सदा बलवान् बना रहने वाला अजर-अमर इन्द्ररूप से ऐश्वर्यवान् परमात्मा (सखा) समान ख्यान जान लिया गया—अन्य वस्तु या सम्बन्धियों से ममत्व हटा कर अपना लिया है (ये घ) जो भी (अग्निम्) ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा को (आ-इन्धते) समन्तरूप से ध्यान द्वारा प्रदीप्त करते हैं (ते) वे उपासकजन (आनुषक्) अनुपूर्वता से अनुक्रम से—क्रमशः (बर्हिः) अपने हृदयावकाश को “बर्हिः-अन्तरिक्षनाम” [निघं॰ १.३] (स्तृणन्ति) इन्द्ररूप परमात्मा के सखित्व स्नेह से अग्निरूप परमात्मा के ज्ञानप्रकाश से आच्छादित कर लेते—पूर्ण कर लेते—भर लेते हैं।
भावार्थ - जो जन इन्द्ररूप परमात्मा को मित्र बना लेते हैं उस जैसे अपने अन्दर गुण धारण करके परमात्मा को ध्यान से अपने में प्रदीप्त कर लेते हैं वे अपने हृदयावकाश को परमात्मा के स्नेह और ज्ञानप्रकाश से भर लिया करते हैं॥९॥
विशेष - ऋषिः—त्रिशोकः (तीनों ज्ञान कर्म उपासना से प्राप्त दीप्ति वाला जन)॥<br>
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