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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 142
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क्वा꣢३꣱स्य꣡ वृ꣢ष꣣भो꣡ युवा꣢꣯ तुवि꣣ग्री꣢वो꣣ अ꣡ना꣢नतः । ब्र꣣ह्मा꣡ कस्तꣳ स꣢꣯पर्यति ॥१४२॥

स्वर सहित पद पाठ

क्व꣢꣯ । स्यः । वृ꣣षभः꣢ । यु꣡वा꣢꣯ । तु꣣विग्री꣡वः꣢ । तु꣣वि । ग्री꣡वः꣢꣯ । अ꣡ना꣢꣯नतः । अन् । आ꣣नतः । ब्रह्मा꣢ । कः । तम् । स꣣पर्यति ॥१४२॥


स्वर रहित मन्त्र

क्वा३स्य वृषभो युवा तुविग्रीवो अनानतः । ब्रह्मा कस्तꣳ सपर्यति ॥१४२॥


स्वर रहित पद पाठ

क्व । स्यः । वृषभः । युवा । तुविग्रीवः । तुवि । ग्रीवः । अनानतः । अन् । आनतः । ब्रह्मा । कः । तम् । सपर्यति ॥१४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 142
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(स्यः) वह (वृषभः) सुखवर्षक (युवा) सदा अजर एकरस (तुविग्रीवः) बहुत ज्ञानोपदेष्टा “तुवि बहुनाम” [निघं॰ ३.१] “ग्रीवा गृणातेः” [निरु॰ २.२८] “गृ शब्दे” (क्र्यादि॰) या बहुत ज्ञानशक्तिवाला “सहस्रशीर्षाः पुरुषः” [यजुः॰ ३१.१] की भाँति (अनानतः) किसी से नत न किया जाने वाला—सर्वाधिपति सर्वमहान् परमात्मा “अनानतस्य महतः” [निरु॰ १२.२३] (क्व) कहाँ है—किसी देश विशेष में नहीं, अपितु सर्वत्र ही है (कः-तं-सपर्यति) कौन उसको परिचरण में ला सकता है यथार्थ जानकर उपासना में ला सकता है “सपर्यति परिचरणकर्मा” [निघं॰ ३.५] (ब्रह्मा) ब्रह्मज्ञानी महान् विद्वान्, साधारण विद्वान् नहीं।

भावार्थ - अरे लोगो! वह सुखवर्षक अजर एकरस बड़ा उपदेष्टा अनन्त ज्ञान शक्ति वाला सर्वाधिपति महान् परमात्मा किसी एक देश में सीमित नहीं, सर्वत्र है ‘परमात्मा कहाँ है’ इसका उत्तर ‘विश्व में है’ उसको यथार्थ जानकर उपासना में लाने वाला कौन हो सकता है ब्रह्मा ब्रह्मज्ञानी पूर्ण विद्वान् ही है। अतः उसको किसी विशेष देश में स्थान में समझना उसे ढूंढने के लिए भटकना भूल है और उसकी यथार्थ उपासना के लिए पूर्ण ज्ञानी बनना भी आवश्यक है॥८॥

विशेष - ऋषिः—प्रगाथः काण्वः (प्रकृष्ट गाथा—स्तुति वाला मेधावी का शिष्य)॥<br>

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