Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 15
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
6

ज꣡रा꣢बोध꣣ त꣡द्वि꣢विड्ढि वि꣣शे꣡वि꣢शे य꣣ज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢ꣳ रु꣣द्रा꣡य꣢ दृशी꣣क꣢म् ॥१५

स्वर सहित पद पाठ

ज꣡रा꣢꣯बोध । ज꣡रा꣢꣯ । बो꣣ध । त꣢त् । वि꣣विड्ढि । विशे꣡वि꣢शे । वि꣣शे꣢ । वि꣣शे । यज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢꣯म् । रु꣣द्रा꣡य꣢ । दृ꣣शीक꣢म् ॥१५॥


स्वर रहित मन्त्र

जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमꣳ रुद्राय दृशीकम् ॥१५


स्वर रहित पद पाठ

जराबोध । जरा । बोध । तत् । विविड्ढि । विशेविशे । विशे । विशे । यज्ञियाय । स्तोमम् । रुद्राय । दृशीकम् ॥१५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 15
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
Acknowledgment

पदार्थ -
(जराबोध) स्तुति के द्वारा बोध कराने वाले “जरा जरतेः स्तुति कर्मणः” [निरु॰ १०.८] (विशे विशे) प्रत्येक मनोनिवेशरूप ध्यानयज्ञ के निमित्त “यज्ञो वै विशो यज्ञे हि सर्वाणि भूतानि विष्टानि” [श॰ ८.७.३.२१] (यज्ञियाय रुद्राय) तुझ ध्यान यज्ञ के अभीष्टदेव तथा स्तुति द्वारा पूर्ण प्रकाशमान हुए या जरावस्था द्वारा रुलाने वाले परमात्मा के लिये “अग्निरपि रुद्र उच्यते” [निरु॰ १०.८] (तत्-दृशीकं स्तोमम्) उस दर्शन साधक स्तुति वचन को (विविड्ढि) भली प्रकार विष्ट हो—अपना ले।

भावार्थ - प्रिय परमात्मन्! जब मैं तेरी स्तुति करता हूँ तो तू मुझे बोध देता है तथा जरावस्था में सावधान करता है—नश्वर संसार से छूट अपनी शरण में आने को प्रेरित करता है। इस प्रकार बोधन कराने वाले परमात्मन्! तू मेरे प्रत्येक मनोनिवेशरूप ध्यान यज्ञ में प्रविष्ट हो—प्राप्त हो—उसे अपना—स्वीकार कर। तुझ प्रकाशस्वरूप ध्यान यज्ञ के इष्टदेव तथा जन्मजन्मान्तर से भोगों की दौड़ में पड़े हुए को पूर्ण पश्चात्ताप कराने वाले के लिये दर्शन साधन मेरे स्तुतिसमूह को स्वीकार कर॥५॥

विशेष - ऋषिः—आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रिय भोगों की दौड़ में शरीर गर्त में गिरा विषय लोलुप उत्थान का उच्छुक जन)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top