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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1817
ऋषिः - अग्निः पावकः
देवता - अग्निः
छन्दः - विष्टारपङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
7
पा꣣वक꣡व꣢र्चाः शु꣣क्र꣡व꣢र्चा꣣ अ꣡नू꣢नवर्चा꣣ उ꣡दि꣢यर्षि भा꣣नु꣡ना꣢ । पु꣣त्रो꣢ मा꣣त꣡रा꣢ वि꣣च꣢र꣣न्नु꣡पा꣢वसि पृ꣣ण꣢क्षि꣣ रो꣡द꣢सी उ꣣भे꣢ ॥१८१७॥
स्वर सहित पद पाठपावक꣡व꣢र्चाः । पा꣣वक꣢ । व꣣र्चाः । शुक्र꣡व꣢र्चाः । शु꣣क्र꣢ । व꣣र्चाः । अ꣡नू꣢꣯नवर्चाः । अ꣡नू꣢꣯न । व꣣र्चाः । उ꣣त् । इ꣣यर्षि । भानु꣡ना꣢ । पु꣣त्रः꣢ । पु꣣त् । त्रः꣢ । मा꣣त꣡रा꣢ । वि꣣च꣡र꣢न् । वि꣣ । च꣡र꣢꣯न् । उ꣡प꣢꣯ । अ꣣वसि । पृण꣡क्षि꣢ । रो꣡द꣢꣯सीइ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ ॥१८१७॥
स्वर रहित मन्त्र
पावकवर्चाः शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा विचरन्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥१८१७॥
स्वर रहित पद पाठ
पावकवर्चाः । पावक । वर्चाः । शुक्रवर्चाः । शुक्र । वर्चाः । अनूनवर्चाः । अनून । वर्चाः । उत् । इयर्षि । भानुना । पुत्रः । पुत् । त्रः । मातरा । विचरन् । वि । चरन् । उप । अवसि । पृणक्षि । रोदसीइति । उभेइति ॥१८१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1817
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(पावकवर्चाः) हे अग्रणायक परमात्मन्! तू पवित्रकारक—तेज वाला (शुक्रवर्चाः) शुभ्र तेज वाला (अनूनवर्चाः) पूर्ण तेज वाला हुआ (भानुना-उदियर्षि) अपने ज्ञानप्रकाश से उपासक के अन्दर उदित रहता है या उस आस्तिक को संसार में सदा भासता रहता है (पुत्रः-मातरा विचरन्-उप-अवसि) पुत्र जैसे माता पिता के पास विचरण करता हुआ उन्हें तृप्त करता है ऐसे मुझ उपासक को भी तृप्त कर३ (उभे रोदसी पृणक्षि) दोनों द्युलोक और पृथिवीलोक को—अपवर्ग स्थान मोक्षधाम को४ और भोगस्थान प्रथित संसार को अभ्युदय को आत्मा के दोनों आश्रय को (पृणक्षि) हमारे लिये सम्पृक्त कराता है५, सम्बद्ध कराता है, उनके भोग और अमृत को भुगाता है॥२॥
विशेष - <br>
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