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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 183
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣य꣡मु꣢ ते꣣ स꣡म꣢तसि क꣣पो꣡त꣢ इव गर्भ꣣धि꣢म् । व꣢च꣣स्त꣡च्चि꣢न्न ओहसे ॥१८३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । उ꣣ । ते । स꣢म् । अ꣣तसि । कपो꣡तः꣢ । इ꣣व । गर्भधि꣣म् । ग꣣र्भ । धि꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । तत् । चि꣣त् । नः । ओहसे ॥१८३॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम् । वचस्तच्चिन्न ओहसे ॥१८३॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । उ । ते । सम् । अतसि । कपोतः । इव । गर्भधिम् । गर्भ । धिम् । वचः । तत् । चित् । नः । ओहसे ॥१८३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 183
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(ते) हे इन्द्र ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तेरा पुत्र या सखा (अयम्-उ) यह ही मैं जीवात्मा (समतसि) ‘समतति’ पुरुषव्यत्यये न मध्यमः, शरीर में भोगार्थ निरन्तर पुनः पुनः गमन कर रहा है—भटक रहा है (कपोतः-इव गर्भधिम्) जैसे कबूतर पौधे के गर्भरूप अन्न धरे हुए हैं जहाँ ऐसे जाल को प्राप्त हो रहा है उसमें अन्नभोगार्थ फँस रहा है “अन्नं वै गर्भाः” [तै॰ सं॰ ५.३.३.४] “कर्मण्यधिकरणे च” [अष्टा॰ ३.३.९३] ‘इत्यधिकरणेऽर्थे धाधातोः किः प्रत्ययः’ (तत्-चित्) उस हेतु भी—(नः-वचः-ओहसे) हमारे—मेरे आर्तवचन—प्रार्थना वचन—शरीर बन्धन या भोग-बन्धन से या भोगसंकट से विमुक्तिनिमित्तप्रार्थनावचन को समन्त रूप से प्राप्त होता है “ऊहे......वहति” [निरु॰ ६.३५] सुनता है—स्वीकार करता है।
भावार्थ - परमात्मन्! दाने के लोभ में दाने वाले जाल में फँसे कबूतर की भाँति भोगार्थ भोगस्थान शरीर में भटकते हुए फँसे हुए इस मुझ जीवात्मा के पश्चात्तापरूप आर्त्तनाद को अवश्य सुनता है—सुन, मुझे मुक्ति प्रदान कर॥९॥
विशेष - ऋषिः—आजीगर्तः शुनःशेपः (इन्द्रिय भोगों की दौड़ में शरीरगर्त में गिरा विषय सङ्गी जन उत्थान का इच्छुक)॥<br>
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