Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 189
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
7
पा꣣वका꣢ नः꣣ स꣡र꣢स्वती꣣ वा꣡जे꣢भिर्वा꣣जि꣡नी꣢वती । य꣣ज्ञं꣡ व꣢ष्टु धि꣣या꣡व꣢सुः ॥१८९॥
स्वर सहित पद पाठपा꣣वका꣢ । नः꣣ । स꣡र꣢꣯स्वती । वा꣡जे꣢꣯भिः । वा꣣जि꣡नी꣢वती । य꣣ज्ञ꣢म् । व꣣ष्टु । धिया꣡व꣢सुः । धि꣣या꣢ । व꣣सुः ॥१८९॥
स्वर रहित मन्त्र
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञं वष्टु धियावसुः ॥१८९॥
स्वर रहित पद पाठ
पावका । नः । सरस्वती । वाजेभिः । वाजिनीवती । यज्ञम् । वष्टु । धियावसुः । धिया । वसुः ॥१८९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 189
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 8;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 8;
Acknowledgment
पदार्थ -
(सरस्वती) वाक्-स्तुति वाणी (वाजेभिः) विविध बलों से—शरीर मन आत्मबलों से “वाजः-बलम्” [निघं॰ २.९] (वाजिनीवती) बलवती प्रवृत्ति वाली होती हुई (नः पावकाः) हमें पवित्र करने वाली (धियावसुः-यज्ञं वष्टु) कर्म से वसी हुई कर्मपरायण क्रियाशील—प्रगति वाली होती हुई “धियावसुः कर्मवसुः” [निरु॰ ११.२६] “तृतीयायाः अलुक्” अध्यात्म यज्ञ को चाहे—सम्पन्न करे—बढ़ावे—चमकावें।
भावार्थ - शरीर मन आत्मा के बलों की अपेक्षा स्तुति में होती है “नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः” [मुण्ड॰ ३.२.४] इन तीनों बलों से स्तुति वाक् बलवती होकर हमें पवित्रकारिणी होती है वह ऐसी स्तुति वाणी प्रगतिशील कर्म प्रगति में बसी हुई अध्यात्म यज्ञ को चाहा या चमकाया करती है॥५॥
विशेष - ऋषिः—मधुच्छन्दाः (मीठी इच्छा वाला मधु अध्यात्म परायण जन)॥<br>
इस भाष्य को एडिट करें