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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 199
ऋषिः - श्रुतकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्र꣢ इ꣣षे꣡ द꣢दातु न ऋभु꣣क्ष꣡ण꣢मृ꣣भु꣢ꣳ र꣣यि꣢म् । वा꣣जी꣡ द꣢दातु वा꣣जि꣡न꣢म् ॥१९९॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । इ꣣षे꣢ । द꣣दातु । नः । ऋभुक्ष꣡ण꣢म् । ऋ꣣भु । क्ष꣡ण꣢꣯म् । ऋ꣣भु꣢म् । ऋ꣣ । भु꣢म् । र꣣यि꣢म् । वा꣣जी꣢ । द꣣दातु । वाजि꣡न꣢म् ॥१९९॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्र इषे ददातु न ऋभुक्षणमृभुꣳ रयिम् । वाजी ददातु वाजिनम् ॥१९९॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रः । इषे । ददातु । नः । ऋभुक्षणम् । ऋभु । क्षणम् । ऋभुम् । ऋ । भुम् । रयिम् । वाजी । ददातु । वाजिनम् ॥१९९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 199
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मन्! (नः-इषे) हमारी कामनाओं के लिये पूर्ण काम होने के लिए (ऋभुक्षणम्) महान् “ऋभुक्षा महन्नाम” [निघं॰ ३.३] या उरुक्षयण—महान् निवास रूप (ऋभुम्) अपने धाम-मोक्ष निःश्रेयस को “ऋभुः-इन्द्रस्य प्रियं धाम” [ता॰ १४.२.५] (रयिम्) ऐश्वर्य सांसारिक अभ्युदय को (ददातु) दे (वाजी वाजिनं ददातु) वह समस्त बलों वाला परमात्मा वाजिन—मोक्षसाधक ब्रह्मचर्यपूर्ण संयम को दे “रेतो वाजिनम्” [तै॰ १.६.३.१०]।

भावार्थ - मानव के दो लक्ष्य हैं रयि—ऐश्वर्य—अभ्युदय और मोक्षधाम-निःश्रेयस है इन दोनों को परमात्मा प्रदान करता है इन दोनों का साधन ब्रह्मचर्य संयम सदाचार बल है उसे भी सब बलों का स्वामी या बलों से सम्पन्न हमें प्रदान करे—करता है॥६॥

विशेष - ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुन लिया है अध्यात्मकक्ष जिसने)॥<br>

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