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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 20
ऋषिः - वत्सः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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आ꣢꣫दित्प्र꣣त्न꣢स्य꣣ रे꣡त꣢सो꣣ ज्यो꣡तिः꣢ पश्यन्ति वास꣣र꣢म् । प꣣रो꣢꣫ यदि꣣ध्य꣡ते꣢ दि꣣वि꣢ ॥२०॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢त् । इत् । प्र꣣त्न꣡स्य꣢ । रे꣡त꣢꣯सः । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । प꣣श्यन्ति । वासर꣢म् । प꣣रः꣢ । यत् । इ꣣ध्य꣡ते꣢ । दि꣣वि꣢ ॥२०॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्प्रत्नस्य रेतसो ज्योतिः पश्यन्ति वासरम् । परो यदिध्यते दिवि ॥२०॥
स्वर रहित पद पाठ
आत् । इत् । प्रत्नस्य । रेतसः । ज्योतिः । पश्यन्ति । वासरम् । परः । यत् । इध्यते । दिवि ॥२०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 20
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(आत्-इत्) अनन्तर ही—निदिध्यासनरूप अभ्यास के अनन्तर ही (प्रत्नस्य रेतसः) इस जगत् से पूर्व वर्तमान शाश्वतिक तथा सर्वत्र जगत् में प्राप्त अग्नि—प्रकाशस्वरूप परमात्मा की “रेतो वा अग्निः” [मै॰ ३.२.१] (वासरं ज्योतिः) ‘वास-र’ मुक्त आत्माओं को वास देने वाले ज्योति को (पश्यन्ति) देखते हैं ध्यानीजन (यत्-दिवि परः-इध्यते) जो द्योतनात्मक अमृतरूप मोक्षधाम में “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] अत्यन्त दीप्त हो रही है।
भावार्थ - जगत् से पूर्व वर्तमान तथा जगत् में व्याप्त परमात्मा की ज्योति को जो कि प्रकाशमय मोक्षधाम में अत्यन्त दीप्त हो रही है उसे ध्यानी योगाभ्यास के अनन्तर साक्षात् प्राप्त किया करते हैं। परमात्मा का ज्योतिःस्वरूप अनन्त मोक्षधाम में है वही ध्यानी जन के हृदय में साक्षात् होता है केवल अल्पकालिक है और एक देशी सा प्रतीत होता है, परन्तु परमात्मा तो अनन्त है, किन्तु मनुष्य का अधिकार तो हृदय में ही साक्षात् करने का है वह अनन्त नहीं हो सकता “हृद्यपेक्षा तु मानुष्याधिकारत्वात्” [वेदान्त॰ १.३.२५]॥१०॥
विशेष - ऋषिः—वत्सः (अध्यात्म वक्ता जन)॥<br>
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