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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 244
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢ ऋ꣣ते꣡ चि꣢द꣣भिश्रि꣡षः꣢ पु꣣रा꣢ ज꣣त्रु꣡भ्य꣢ आ꣣तृ꣡दः꣢ । स꣡न्धा꣢ता स꣣न्धिं꣢ म꣣घ꣡वा꣢ पुरू꣣व꣢सु꣣र्नि꣡ष्क꣢र्ता꣣ वि꣡ह्रु꣢तं꣣ पु꣡नः꣢ ॥२४४॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । ऋ꣣ते꣢ । चि꣣त् । अभिश्रि꣡षः꣢ । अ꣣भि । श्रि꣡षः꣢꣯ । पु꣣रा꣢ । ज꣣त्रु꣡भ्यः꣢ । आ꣣तृ꣡दः꣢ । आ꣣ । तृ꣡दः꣢꣯ । स꣡न्धा꣢꣯ता । स꣣म् । धा꣣ता । सन्धि꣢म् । स꣣म् । धि꣢म् । म꣣घ꣡वा꣢ । पु꣣रूव꣡सुः꣢ । पु꣣रु । व꣡सुः꣢꣯ । नि꣡ष्क꣢꣯र्ता । निः । क꣣र्त्ता । वि꣡ह्रु꣢꣯तम् । वि । ह्रु꣣तम् । पु꣢नरि꣡ति꣢ ॥२४४॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः । सन्धाता सन्धिं मघवा पुरूवसुर्निष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥२४४॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । ऋते । चित् । अभिश्रिषः । अभि । श्रिषः । पुरा । जत्रुभ्यः । आतृदः । आ । तृदः । सन्धाता । सम् । धाता । सन्धिम् । सम् । धिम् । मघवा । पुरूवसुः । पुरु । वसुः । निष्कर्ता । निः । कर्त्ता । विह्रुतम् । वि । ह्रुतम् । पुनरिति ॥२४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 244
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
पदार्थ—(यः—पुरूवसुः-मघवा) जो सबमें वसने वाला—सर्वव्यापक या सबको अपने अन्दर वसाने वाला रक्षक “त्वमस्य पारे रजसो व्योमनः” [ऋ॰ १.५२.४] इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा (जत्रुभ्यः) ग्रीवा जोड़ों से प्रधान अङ्ग या ऊपर के अङ्ग को (आतृदः पुरा) आतर्दन—हिंसक—टूटने से—अलग होने से पूर्व “तृदिर् हिंसायाम्” [रुधादि॰] (अभिश्रिषः-ऋतेचित्) अभिश्लेष—चिपकाने या जोड़ने वाले साधन के विना भी—विना ही (सन्धिं सन्धाता) सन्धान योग्य—जोड़ने योग्य को जोड़ने की शक्ति रखने वाला है (पुनः) अपितु (वि ह्रु तं ‘विद्रुतम्’) प्रधान या ऊपर के अङ्ग से अन्य अलग अलग जो मांस आदि अङ्ग हैं उसे भी उसी भाँति उनके हिंसित होने से पूर्व (निष्कर्ता) प्रत्येक का निष्करण नियोजन—यथास्थान पर निष्ठापन करने वाला है वह उपास्य है।
भावार्थ - मानवदेह को लक्ष्य बनाकर परमात्मा का मनन प्रकार दर्शाया है कि संसार में शल्यचिकित्सक तो ग्रीवा आदि अङ्ग जब अपने जोड़ों से कट जाते अलग हो जाते हैं तभी उसे जोड़ते हैं और जोड़ने के साधन से जोड़ते हैं परन्तु परमात्मा जो सबमें वसा हुआ सबको अपने में वसाने वाला है वह तो ग्रीवादि प्रधान या ऊपर के अङ्ग को अपने जोड़ वाले अङ्गों से अलग होने से पूर्व ही जोड़ने वाला है और विना जोड़ने वाले साधन के एक सन्धि जोड़ को दूसरे जोड़ से सन्धान—जोड़ने की शक्ति रखने वाला एवं एक हड्डी को दूसरी हड्डी से जोड़ता है फिर इसी प्रकार जो अवयव पृथक् होने वाले मांस आदि है उसे भी उसके कटने फटने से पूर्व विना जोड़ने वाले साधन के नियोजित करने यथास्थान निष्ठापित करने में समर्थ है उस ऐसी शरीरकृति को देख विचार—मनन कर उस परम शल्य चिकित्सक या परम शिल्पी की उपासना करनी चाहिए॥२॥
विशेष - ऋषिः—मेधातिथिर्मेध्यातिथिर्वा (मेधा से अतन—गमन प्रवेशशील या पवित्र परमात्मा में अतन—गमन प्रवेशशील)॥<br>
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