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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 278
ऋषिः - पुरुहन्मा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡द्द्याव꣢꣯ इन्द्र ते श꣣त꣢ꣳ श꣣तं꣡ भूमी꣢꣯रु꣣त꣢ स्युः । न꣡ त्वा꣢ वज्रिन्त्स꣣ह꣢स्र꣣ꣳ सू꣢र्या꣣ अ꣢नु꣣ न꣢ जा꣣त꣡म꣢ष्ट꣣ रो꣡द꣢सी ॥२७८॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । द्या꣡वः꣢꣯ । इ꣣न्द्र । ते । शत꣢म् । श꣣त꣢म् । भू꣡मीः꣢꣯ । उ꣣त꣢ । स्युः । न । त्वा꣣ । वज्रिन् । सह꣡स्र꣢म् । सू꣡र्याः꣢꣯ । अ꣡नु꣢꣯ । न । जा꣣त꣢म् । अ꣣ष्ट । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ ॥२७८॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्द्याव इन्द्र ते शतꣳ शतं भूमीरुत स्युः । न त्वा वज्रिन्त्सहस्रꣳ सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी ॥२७८॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । द्यावः । इन्द्र । ते । शतम् । शतम् । भूमीः । उत । स्युः । न । त्वा । वज्रिन् । सहस्रम् । सूर्याः । अनु । न । जातम् । अष्ट । रोदसीइति ॥२७८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 278
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(वज्रिन्-इन्द्र) हे ओजस्वी ‘वज्रो वा ओजः’ [श॰ ८.४.१.२०] ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (यत्) यदि (ते) तेरे सम्मुख (शतं द्यावः) सैकड़ों द्युलोक भी हों (उत) और (शतं भूमीः स्युः) सैकड़ों भूमियाँ हों (सहस्रं सूर्याः) बहुत सूर्य भी हों (त्वा-अनु न) तेरे अनुरूप—तुल्य—गुण कर्म स्वरूप के प्रतिमान नहीं हैं (रोदसी जातं न-अष्ट) “रोदसी रोधसी रोधः कूलं निरुणद्धि स्रोतः” [निरु॰ ६.१] विश्व के दोनों कटाह सम्पुट उत्तर गोलार्द्ध दक्षिण गोलार्द्ध सीमा प्रान्त भी तुझ प्रसिद्ध को नहीं व्याप सकते हैं।
भावार्थ - हे ओजस्वी परमात्मन्! यदि तेरे सम्मुख सैकड़ों द्युलोक हों और सैकड़ों भूमियाँ—पृथिवी लोक हों तथा बहुत सूर्य भी हों पुनरपि तेरे अनुरूप—गुण कर्म स्वरूप में तुल्य नहीं हो सकते, एक एक की तो क्या कथा, सब मिलकर भी तथा विश्व को थामने वाली दोनों उत्तर गोलार्द्ध दक्षिण गोलार्द्ध सीमाएँ भी तुझ प्रसिद्ध सर्वत्र भीतर बाहर वर्तमान को व्याप नहीं सकती सीमित नहीं कर सकती हैं। तुझ ऐसे अनन्त—आकाश से भी परे वर्त्तमान को “त्वमस्य पारे रजसो व्योमनः” [ऋ॰ १.५२.१२] हम समझें ध्यावें॥६॥
विशेष - ऋषिः—पुरुहन्मा (बहुत प्रगतिशील बहुत ज्ञानी)॥<br>
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