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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 285
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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सु꣣नो꣡त꣢ सोम꣣पा꣢व्ने꣣ सो꣢म꣣मि꣡न्द्रा꣢य व꣣ज्रि꣡णे꣢ । प꣡च꣢ता प꣣क्ती꣡रव꣢꣯से कृणु꣣ध्व꣢꣯मित्पृ꣣ण꣢न्नित्पृ꣢꣯ण꣣ते꣡ मयः꣢꣯ ॥२८५॥

स्वर सहित पद पाठ

सु꣣नो꣡त꣢ । सो꣣मपा꣡व्ने꣢ । सो꣣म । पा꣡व्ने꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । व꣣ज्रि꣡णे꣢ । प꣡च꣢꣯त । प꣣क्तीः꣢ । अ꣡व꣢꣯से । कृ꣣णुध्व꣢म् । इत् । पृ꣣ण꣢न् । इत् । पृ꣣णते꣢ । म꣡यः꣢꣯ ॥२८५॥


स्वर रहित मन्त्र

सुनोत सोमपाव्ने सोममिन्द्राय वज्रिणे । पचता पक्तीरवसे कृणुध्वमित्पृणन्नित्पृणते मयः ॥२८५॥


स्वर रहित पद पाठ

सुनोत । सोमपाव्ने । सोम । पाव्ने । सोमम् । इन्द्राय । वज्रिणे । पचत । पक्तीः । अवसे । कृणुध्वम् । इत् । पृणन् । इत् । पृणते । मयः ॥२८५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 285
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(वज्रिणे) ओजस्वी—“वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (सोमपाव्ने) उपासनारस का पान करने वाले—स्वीकार करने वाले—(इन्द्राय) परमात्मा के लिये (सोमं सुनोत) उपासनारस को निष्पन्न करो (अवसे) रक्षा के लिये “अवरक्षणगतिकान्तिप्रीतिसृप्त्यवगमप्रवेश........” [भ्वादि॰] (पक्तीः पचत) परिपक्व करने योग्य—साधने योग्य चित्तवृत्तियों को परिपक्व करो, अभ्यास वैराग्य द्वारा साधो—निरुद्ध करो (कृणुध्वम्) पुनः आत्मसमर्पण करो (इत्) इस प्रकार (पृणते) उपासनारस से प्रसन्न करते हुए या उपासनारस प्रदान करते हुए उपासक के लिये (इत्) अवश्य परमात्मा (मयः-पृणन्) सुख देता हुआ सदा वर्तमान रहता है “पृणाति दानकर्मा” [निघं॰ ३.१०]।

भावार्थ - हे उपासक जनो! उपासनारस पान—स्वीकार करने वाले ओजस्वी परमात्मा के लिये उपासनारस को निष्पन्न करो इस कारण परिपक्व करने योग्य—निरुद्ध करने योग्य चित्तवृत्तियों को अभ्यास वैराग्य के द्वारा साधो—निरुद्ध करो पुनः आत्मसमर्पण करो इस प्रकार उपासनारस देने वाले उपासक के लिये परमात्मा सुख का दान—वरदान देता रहता है॥३॥

विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाले उपासक)॥<br>

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