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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 349
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ त्वा꣣ गि꣡रो꣢ र꣣थी꣢रि꣣वा꣡स्थुः꣢ सु꣣ते꣡षु꣢ गिर्वणः । अ꣣भि꣢ त्वा꣣ स꣡म꣢नूषत꣣ गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥३४९॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । त्वा꣣ । गि꣡रः꣢꣯ । र꣣थीः꣢ । इव । अ꣡स्थुः꣢꣯ । सु꣣ते꣡षु꣢ । गि꣣र्वणः । गिः । वनः । अभि꣢ । त्वा꣣ । स꣢म् । अ꣣नूषत । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ ॥३४९॥


स्वर रहित मन्त्र

आ त्वा गिरो रथीरिवास्थुः सुतेषु गिर्वणः । अभि त्वा समनूषत गावो वत्सं न धेनवः ॥३४९॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । त्वा । गिरः । रथीः । इव । अस्थुः । सुतेषु । गिर्वणः । गिः । वनः । अभि । त्वा । सम् । अनूषत । गावः । वत्सम् । न । धेनवः ॥३४९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 349
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
(गिर्वणः) हे स्तुतिवाणियों से वननीय सेवनीय परमात्मन्! (त्वा) तेरे प्रति—तुुझे पाकर (सुतेषु) सम्पन्न उपासना प्रसङ्गों (गिरः) स्तुतियाँ (आस्थुः) आश्रित हो जाती हैं (रथीः-इव) जैसे रथवान् गन्तव्य—प्राप्तव्य स्थान को पाकर उसे आश्रित होते हैं (त्वा-अभि समनूषत) तुझे लक्ष्य कर झुकती हैं—आकर्षित होती हैं (धेनवः-गावः न वत्सम्) दूध पिलाने वाली गौएँ जैसे दूध पिलाने के स्नेहवश बछड़े के प्रति झुक जाती हैं—आकर्षित होती हैं।

भावार्थ - हमारी स्तुतियाँ परमात्मा के प्रति ऐसी होनी चाहिए जैसे यात्री अपने गन्तव्य स्थान पर जाकर ही विश्राम पाता है ऐसे परमात्मा में विश्राम पायें, मध्य में विश्राम न करें तथा वे परमात्मा के प्रति ऐसी भावभरी हुई स्तुतियाँ हों जैसे दूधभरी गौएँ स्नेह में भर बछड़े की ओर झुकी जाया करती हैं, उसकी ओर आकर्षित होती जाती हैं॥८॥

विशेष - ऋषिः—तिरश्ची (परमात्मा का अन्दर ध्यान करने वाला)॥<br>

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