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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 366
ऋषिः - अत्रिर्भौमः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वि꣣भो꣡ष्ट꣢ इन्द्र꣣ रा꣡ध꣢सो वि꣣भ्वी꣢ रा꣣तिः꣡ श꣢तक्रतो । अ꣡था꣢ नो विश्वचर्षणे द्यु꣣म्न꣡ꣳ सु꣢दत्र मꣳहय ॥३६६॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣣भोः꣢ । वि꣣ । भोः꣢ । ते꣣ । इन्द्र । रा꣡ध꣢꣯सः । वि꣣भ्वी꣢ । वि । भ्वी꣢ । रा꣣तिः꣢ । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । विश्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे । द्युम्न꣢म् । सु꣣दत्र । सु । दत्र । मँहय ॥३६६॥


स्वर रहित मन्त्र

विभोष्ट इन्द्र राधसो विभ्वी रातिः शतक्रतो । अथा नो विश्वचर्षणे द्युम्नꣳ सुदत्र मꣳहय ॥३६६॥


स्वर रहित पद पाठ

विभोः । वि । भोः । ते । इन्द्र । राधसः । विभ्वी । वि । भ्वी । रातिः । शतक्रतो । शत । क्रतो । अथ । नः । विश्वचर्षणे । विश्व । चर्षणे । द्युम्नम् । सुदत्र । सु । दत्र । मँहय ॥३६६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 366
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(शतक्रतो-इन्द्र) हे बहुत कर्मशक्तिमन् ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (ते विभोः-राधसः) तेरे विभुधन—महान् धन का (विभ्वी रातिः) महान् दान है (अथ) और “अथ समुच्चये” [अव्ययार्थनिबन्धम्] (विश्वचर्षणे सुदत्र) हे सर्वद्रष्टा अच्छे दाता कल्याणदानी “सुदत्रः कल्याणदानः” [निरु॰ ६.१४] (नः) हमारे लिये (द्युम्नं मंहय) द्योतमान धन को प्रदान कर “मंहतेर्दानकर्मणः” [निरु॰ १.७]।

भावार्थ - हे बहुत कर्म प्रवृत्ति वाले—अनन्त कर्मशक्तिमन् परमात्मन्! तेरा धन महान् है तेरे धन से संसार भरा पड़ा है और मोक्षधाम भी तेरे अमर धन से भरा पड़ा है, उस महान् धन का दान भी तू करता है। इस संसार में भी तेरे विविध दान जीवों के प्रति हैं एवं मोक्षधाम में मुमुक्षुओं को महान् आनन्द दान देता है और सर्वद्रष्टा भद्रदानी परमात्मन्! तू हमें कल्याणकारी द्योतमान ज्ञान दान दे, जिससे इस संसार के और मोक्ष के दोनों धनों का उपभोग कर सकें॥७॥

विशेष - ऋषिः—अत्रिः (इस जीवन में ही तृतीय ज्योति परमात्मा का साक्षात्कर्ता)॥<br>

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