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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 372
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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स꣣मे꣢त꣣ वि꣢श्वा꣣ ओ꣡ज꣢सा꣣ प꣡तिं꣢ दि꣣वो꣢꣯ य एक꣣ इ꣡द्भूरति꣢꣯थि꣣र्ज꣡ना꣢नाम् । स꣢ पू꣣र्व्यो꣡ नू꣢꣯तनमा꣣जि꣡गी꣢ष꣣न् तं꣡ व꣢र्त्त꣣नी꣡रनु꣢꣯ वावृत꣣ ए꣢क꣣ इ꣢त् ॥३७२॥
स्वर सहित पद पाठस꣣मे꣡त꣢ । स꣣म् । ए꣡त꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । ओ꣡ज꣢꣯सा । प꣡ति꣢꣯म् । दि꣣वः꣢ । यः । ए꣡कः꣢꣯ । इत् । भूः । अ꣡ति꣢꣯थिः । ज꣡ना꣢꣯नाम् । सः । पू꣣र्व्यः꣢ । नू꣡त꣢꣯नम् । आ꣣जि꣡गी꣢षन् । आ꣣ । जि꣡गी꣢꣯षन् । तम् । व꣣र्त्तनीः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । वा꣣वृते । ए꣡कः꣢꣯ । इत् ॥३७२॥
स्वर रहित मन्त्र
समेत विश्वा ओजसा पतिं दिवो य एक इद्भूरतिथिर्जनानाम् । स पूर्व्यो नूतनमाजिगीषन् तं वर्त्तनीरनु वावृत एक इत् ॥३७२॥
स्वर रहित पद पाठ
समेत । सम् । एत । विश्वाः । ओजसा । पतिम् । दिवः । यः । एकः । इत् । भूः । अतिथिः । जनानाम् । सः । पूर्व्यः । नूतनम् । आजिगीषन् । आ । जिगीषन् । तम् । वर्त्तनीः । अनु । वावृते । एकः । इत् ॥३७२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 372
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(विश्वाः) समस्त मानव प्रजाओ! (दिवः-पतिम्) मोक्षधाम के स्वामी को (ओजसा समेत) अपने पूर्ण बल से सम्प्राप्त होओ (यः-एकः-इत्) जो अकेला ही (जनानाम्-अतिथिः-भूः) जन्यमान मनुष्यों के अन्दर अन्तर्यामीरूप से विराजने वाला है (सः) वह (पूर्व्यः) उनकी उत्पत्ति या शरीर में आने से पूर्व पुरातन—पूर्व से ही वर्तमान हुआ (नूतनम्) नवीन—पश्चात् शरीर में आने वाले (आजिगीषन्तम्) शरीर को अभिभूत—स्वाधीन करने के इच्छुक जीवात्मा को “जि-अभिभवे” [भ्वादि॰] (एकः-इत्) अकेला ही (वर्तनीः-अनुवावृत्ते) कर्मानुसार गतियों के पीछे “वर्तते गतिकर्मा” [निघं॰ २.४] घुमाता है।
भावार्थ - परमात्मा में प्रवेश करने वाले उपासक मोक्षधाम के स्वामी परमात्मा को अपने आत्मिकबल से प्राप्त होते हैं जो कि अकेला ही जन्यमान वस्तुओं में अन्तर्यामीरूप से विराजमान स्वामी सनातन है शरीर पर अधिकार जमाने के इच्छुक इसके स्वामी जीवात्मा को कर्मानुसार गतियों में घुमाता है॥३॥
विशेष - ऋषिः—वामदेवः वननीय—उपासनीय देव जिसका है ऐसा उपासक)॥<br>
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