Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 383
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
तं꣢ ते꣣ म꣡दं꣢ गृणीमसि꣣ वृ꣡ष꣢णं पृ꣣क्षु꣡ सा꣢स꣣हि꣢म् । उ꣣ लोककृत्नु꣡म꣢द्रिवो हरि꣣श्रि꣡य꣢म् ॥३८३॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । ते꣣ । म꣡द꣢꣯म् । गृ꣣णीमसि । वृ꣡ष꣢꣯णम् । पृ꣣क्षु꣢ । सा꣣सहि꣢म् । उ꣣ । लोककृत्नु꣢म् । लो꣣क । कृत्नु꣢म् । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । हरिश्रि꣡य꣢म् । ह꣣रि । श्रि꣡य꣢꣯म् ॥३८३॥
स्वर रहित मन्त्र
तं ते मदं गृणीमसि वृषणं पृक्षु सासहिम् । उ लोककृत्नुमद्रिवो हरिश्रियम् ॥३८३॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । ते । मदम् । गृणीमसि । वृषणम् । पृक्षु । सासहिम् । उ । लोककृत्नुम् । लोक । कृत्नुम् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । हरिश्रियम् । हरि । श्रियम् ॥३८३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 383
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
Acknowledgment
पदार्थ -
(अद्रिवः) हे ओजस्वी परमात्मदेव! (ते) तेरे (पृक्षु सासहिम्) हमें प्राप्त विरोधी सम्पर्कों में दुर्वृत्तियों को दबाने वाले—तथा (वृषणम्) सुखवर्षक (लोककृत्नुम्) हमारे जीवन संसार को करने बनाने वाले (हरिश्रियम्) दुःखापहरण सुखाहरण करने वाले ऋक्साम—स्तुति उपासना पर आश्रित ‘ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी’ [मै॰ ३-१०-६] (मदम्) अर्चनीय स्वरूप को “मदति—अर्चति-कर्मा” [निघं॰ ३.१४] (गृणीमसि) स्तुत करते हैं—स्तुति में लाते हैं।
भावार्थ - हे ओजस्वी परमात्मन्! विरोधी सम्पर्कों दुर्वृत्तियों को दबाने वाले तथापि सुखवर्षक मेरे जीवन संसार को बनाने वाले दुःखापहारी सुखाहरण करने वाले स्तुति उपासना के आश्रित तेरे अर्चनीय स्वरूप को प्रशंसित करते हैं स्तुत करते हैं—स्तुति में लाते हैं॥३॥
विशेष - ऋषिः—गोषूक्त्यश्वसूक्तिनावृषी (प्रशस्त इन्द्रियों की सूक्त प्रशंसन वाला, व्यापने वाले प्रशस्त मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार को सूक्त शिवसङ्कल्प बनाने वाला)॥<br>
इस भाष्य को एडिट करें