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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 39
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
4
अ꣢ग्ने꣣ ज꣡रि꣢तर्वि꣣श्प꣡ति꣢स्तपा꣣नो꣡ दे꣢व र꣣क्ष꣡सः꣢ । अ꣡प्रो꣢षिवान्गृहपते म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि दि꣣व꣢स्पा꣣यु꣡र्दु꣢रोण꣣युः꣢ ॥३९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । ज꣡रि꣢꣯तः । वि꣣श्प꣡तिः꣢ । त꣣पानः꣢ । दे꣣व । रक्ष꣡सः꣢ । अ꣡प्रो꣢꣯षिवान् । अ । प्रो꣣षिवान् । गृहपते । गृह । पते । महा꣢न् । अ꣣सि । दि꣣वः꣢ । पा꣣युः꣢ । दु꣣रोणयुः꣢ । दुः꣣ । ओनयुः꣢ । ॥३९॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने जरितर्विश्पतिस्तपानो देव रक्षसः । अप्रोषिवान्गृहपते महाꣳ असि दिवस्पायुर्दुरोणयुः ॥३९॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । जरितः । विश्पतिः । तपानः । देव । रक्षसः । अप्रोषिवान् । अ । प्रोषिवान् । गृहपते । गृह । पते । महान् । असि । दिवः । पायुः । दुरोणयुः । दुः । ओनयुः । ॥३९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 39
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(जरितः-गृहपते देव-अग्ने) “जरयितः-अन्तर्गतणिजर्थः” हे अपनी स्तुति की प्रेरणा देने वाले, मेरे हृदय सदनवासी स्वामी अन्तर्यामी परमात्मदेव! तू (रक्षसः-तपानः-विश्पतिः) जिससे रक्षा करनी चाहिए ऐसे काम क्रोध आदि पाप का तापित करने वाला प्रजापालक राजा के समान “लुप्तोपमावाचकालङ्कारः” (दिवः पायुः-महान्-असि) अमृत लोक-मोक्ष धाम का “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [यजु॰ ३१.३] रक्षक है महान् है, परन्तु (दुरोणयुः-अप्रोषिवान्) मेरे हृदय घर को चाहता हुआ “दुरोणं गृहनाम” [निघं॰ ३.४] “छन्दसि परेच्छायां क्यच्” उससे प्रवास न करने वाला भी तू है।
भावार्थ - परमात्मन्! तू दोषों दुष्टविचारों से हमें बचाता है प्रजापालक राजा की भाँति रक्षा करता है, मेरे हृदय घर में आकर बसने वाला सच्चा साथी है, एक बार आकर त्यागता नहीं है। अपनी स्तुति की प्रेरणा देता है, मेरे कल्याणार्थ तथा मेरे लिये मोक्षधाम का रक्षक है॥५॥
विशेष - ऋषिः—भरद्वाजः (अर्चन ज्ञान बल को धारण करने वाला उपासक)॥<br>
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