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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 415
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
अ꣢क्ष꣣न्न꣡मी꣢मदन्त꣣ ह्य꣡व꣢ प्रि꣣या꣡ अ꣢धूषत । अ꣡स्तो꣢षत꣣ स्व꣡भा꣢नवो꣣ वि꣢प्रा꣣ न꣡वि꣢ष्ठया म꣣ती꣢꣫ योजा꣣꣬ न्वि꣢꣯न्द्र ते꣣ ह꣡री꣢ ॥४१५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡क्ष꣢꣯न् । अ꣡मी꣢꣯मदन्त । हि । अ꣡व꣢꣯ । प्रि꣣याः꣢ । अ꣣धूषत । अ꣡स्तो꣢꣯षत । स्व꣡भा꣢꣯नवः । स्व । भा꣣नवः । वि꣡प्राः꣢꣯ । वि । प्राः꣣ । न꣡वि꣢꣯ष्ठया । म꣣ती꣢ । यो꣡ज꣢꣯ । नु । इ꣣न्द्र । ते । ह꣢री꣣इ꣡ति꣢ ॥४१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत । अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी ॥४१५॥
स्वर रहित पद पाठ
अक्षन् । अमीमदन्त । हि । अव । प्रियाः । अधूषत । अस्तोषत । स्वभानवः । स्व । भानवः । विप्राः । वि । प्राः । नविष्ठया । मती । योज । नु । इन्द्र । ते । हरीइति ॥४१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 415
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे परमात्मन्! (ते हरी) तेरे दुःखापहरण और सुखाहरण धर्मों को (योज) तू युक्त करता है, तब (प्रियाः) उपासक तेरे प्रिय हैं (अक्षन्) तेरे अमृतभोग को भोगते हैं (अमीमदन्त) अतीव लाभ करते हैं (हि-अव-अधूषत) अपने सब दुःखों को छोड़ देते हैं (विप्राः) वे मेधावी जन (स्वभानवः) स्वज्ञान से दीप्त हुए समस्त दुःखों को छोड़ते हुए (नविष्ठया मती) अत्यन्त नवीन शुद्ध स्तुति से (अस्तोषत) तेरी स्तुति करते हैं।
भावार्थ - परमात्मन्! तू अपने दया और प्रसाद धर्मों को जब उपासकों के अन्दर युक्त कर देता है तो वे अमृतभोग में तृप्त हुए समस्त दुःखों से छुटे हुए तेरी नवीन—प्रिय स्तुति करते हैं॥७॥
विशेष - ऋषिः—गोतमः (परमात्मा में अत्यन्त गतिमान्)॥<br>
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