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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 421
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः देवता - उषाः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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म꣣हे꣡ नो꣢ अ꣣द्य꣡ बो꣢ध꣣यो꣡षो꣢ रा꣣ये꣢ दि꣣वि꣡त्म꣢ती । य꣡था꣢ चिन्नो꣣ अ꣡बो꣢धयः स꣣त्य꣡श्र꣢वसि वा꣣य्ये꣡ सुजा꣢꣯ते꣣ अ꣡श्व꣢सूनृते ॥४२१॥

स्वर सहित पद पाठ

म꣣हे꣢ । नः꣣ । अद्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । बो꣣धय । उ꣡षः꣢꣯ । रा꣣ये꣢ । दि꣣वि꣡त्म꣢ती । य꣡था꣢꣯ । चि꣣त् । नः । अ꣡बो꣢꣯धयः । स꣣त्य꣡श्र꣢वसि । स꣣त्य꣢ । श्र꣣वसि । वाय्ये꣢ । सु꣡जा꣢꣯ते । सु । जा꣣ते । अ꣡श्व꣢꣯सूनृते । अ꣡श्व꣢꣯ । सू꣣नृते ॥४२१॥


स्वर रहित मन्त्र

महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती । यथा चिन्नो अबोधयः सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥४२१॥


स्वर रहित पद पाठ

महे । नः । अद्य । अ । द्य । बोधय । उषः । राये । दिवित्मती । यथा । चित् । नः । अबोधयः । सत्यश्रवसि । सत्य । श्रवसि । वाय्ये । सुजाते । सु । जाते । अश्वसूनृते । अश्व । सूनृते ॥४२१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 421
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(उषः) हे अन्तरात्मा में प्रकाशित परमात्मज्योति! तू (नः) हमें (अद्य) इस जन्म में (महे राये) महान् मोक्षैश्वर्य के लिये (दिवित्मती) ‘दिवि-एति-दिवित् तद्वती’ मोक्षधाम में जाने वाली, ले जाने वाली, प्रवृत्ति वाली दीप्ति—ज्योति को (बोधय) बोधित कर (यथाचित्) जिस ही प्रकार (नः) हमें (अबोधयः) बोधित कर चुकी पूर्व—पुरातन जन्म—पूर्वकल्प में पूर्व मुक्ति समय में, वैसे अब भी बोधित कर (सत्यश्रवसि) सत्यस्वरूप परमात्मा को सुनाने वाली (वाय्ये) “वार्य्य रेफलोपश्छान्दसः” अवश्य वरणीय (सुजाते) सुप्रसिद्ध—(अश्वसूनृते) व्यापक परमेश्वर की वाणी जिसमें है ऐसी परमात्मदीप्ति।

भावार्थ - हे मुक्त उपासक के अन्दर भासित हुई परमात्मज्योति! तू सत्यस्वरूप परमात्मा को सुनाने वाली—दर्शाने वाली वरण करने योग्य सुप्रसिद्ध व्यापक परमात्मा की वाणी जिसमें है ऐसी मोक्षधाम में गति प्रवृत्ति रखने वाली होकर मोक्षैश्वर्य के लिए हमें बोधित कर। जिस ही प्रकार—जैसे ही हमें पूर्व—पुरातन जन्म में पूर्व मोक्षार्थ बोधित कर चुकी है, सो इस जन्म में भी बोधित कर पुनः मोक्ष पाने के लिए॥३॥

विशेष - ऋषिः—सत्यश्रवाः (सत्यस्वरूप परमात्मा ही जिसका धन है)॥ देवता—उषाः (परमात्मा की व्याप्त दीप्ति-ज्योति)॥<br>

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