Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 442
ऋषिः - त्रसदस्युः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5

स꣢दा꣣ गा꣢वः꣣ शु꣡च꣢यो वि꣣श्व꣡धा꣢यसः꣣ स꣡दा꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢रे꣣प꣡सः꣢ ॥४४२

स्वर सहित पद पाठ

स꣡दा꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । शु꣡च꣢꣯यः । वि꣣श्व꣡धा꣢यसः । वि꣣श्व꣢ । धा꣣यसः । स꣡दा꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । अ꣣रेप꣡सः꣢ । अ꣣ । रेप꣡सः꣢ ॥४४२॥


स्वर रहित मन्त्र

सदा गावः शुचयो विश्वधायसः सदा देवा अरेपसः ॥४४२


स्वर रहित पद पाठ

सदा । गावः । शुचयः । विश्वधायसः । विश्व । धायसः । सदा । देवाः । अरेपसः । अ । रेपसः ॥४४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 442
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
Acknowledgment

पदार्थ -
(गावः) परमात्मा के प्रति स्तुतिवाणियाँ (सदा शुचयः) सदा पवित्र—पापसङ्कल्प और दम्भ से रहित हों (विश्व-धायसः-देवाः) सबको धारण करने वाले मुमुक्षुजन (अरेपसः) पापरहित हों।

भावार्थ - परमात्मा की स्तुतियाँ किसी का अहित करने वाली न हों दम्भ से भी रहित हों, मुमुक्षुजन सबके हितधारक और निष्पाप होते हैं॥६॥

विशेष - ऋषिः—त्रसदस्युः (निज उद्वेग—अशान्ति का क्षीण करने वाला उपासक)॥ देवताः—विश्वेदेवाः (सब दिव्यगुण वाले देव)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top