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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 453
ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वि꣢ स्रु꣣त꣢यो꣣ य꣡था꣢ प꣣थ꣢꣫ इन्द्र꣣ त्व꣡द्य꣢न्तु रा꣣त꣡यः꣢ ॥४५३॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣢ । स्रु꣣त꣡यः꣢ । य꣡था꣢꣯ । प꣣थः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वत् । य꣣न्तु । रात꣡यः꣢ ॥४५३॥


स्वर रहित मन्त्र

वि स्रुतयो यथा पथ इन्द्र त्वद्यन्तु रातयः ॥४५३॥


स्वर रहित पद पाठ

वि । स्रुतयः । यथा । पथः । इन्द्र । त्वत् । यन्तु । रातयः ॥४५३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 453
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (यथा) जैसे (विस्रुतयः) विविध स्रवण करनेवाली नदियाँ अपने अपने मार्ग से पृथिवी को सींचती हैं, ऐसे ही (त्वत्) तुझसे (रातयः) तेरी दानधाराएँ हमें (यन्तु) प्राप्त हों।

भावार्थ - परमात्मन्! इसमें सन्देह नहीं जब हम तेरे उपासक बन जाते हैं तो हम उपासकों की ओर तेरी दानधाराएँ ऐसे प्राप्त होती हैं जैसे मार्ग से बहती हुई विविध जलधाराएँ पृथिवी पर प्राप्त होती हैं॥७॥

विशेष - ऋषिः—कवष ऐलूषः (उदक—जल को बान्धने वाला पृथिवी पर वास कराने—वसाने वाला शरीर के जीवनरस और प्राणों पर अधिकार कर देहपुरी में वसने वाला उपासक जन)॥<br>

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