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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 492
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣पघ्न꣡न्प꣢वसे꣣ मृ꣡धः꣢ क्रतु꣣वि꣡त्सो꣢म मत्स꣣रः꣢ । नु꣣द꣡स्वादे꣢꣯वयुं꣣ ज꣡न꣢म् ॥४९२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣पघ्न꣢न् । अ꣣प । घ्न꣢न् । प꣣वसे । मृ꣡धः꣢꣯ । क्र꣣तुवि꣢त् । क्र꣣तु । वि꣢त् । सो꣣म । मत्सरः꣢ । नु꣣द꣡स्व꣢ । अ꣡दे꣢꣯वयुम् । अ । दे꣣वयुम् । ज꣡न꣢꣯म् ॥४९२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपघ्नन्पवसे मृधः क्रतुवित्सोम मत्सरः । नुदस्वादेवयुं जनम् ॥४९२॥
स्वर रहित पद पाठ
अपघ्नन् । अप । घ्नन् । पवसे । मृधः । क्रतुवित् । क्रतु । वित् । सोम । मत्सरः । नुदस्व । अदेवयुम् । अ । देवयुम् । जनम् ॥४९२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 492
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (क्रतुवित्) प्रज्ञा प्राप्त कराने वाला (मत्सरः) हर्षकर बना हुआ (मृधः) पापभावनाओं को “पाप्मा वै मृधः” [श॰ ६.३.३.८] (घ्नन्) नष्ट करता हुआ (पवसे) आनन्द धारारूप में प्राप्त होता है (अदेवयुं जनम्) देवयु—इष्टदेव—परमात्मा को चाहने वाला नहीं, ऐसे नास्तिक जन को (आनुदस्व) दूर कर।
भावार्थ - शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू प्रज्ञा प्राप्त कराने वाला, हर्ष लाने वाला, पापभावनाओं को नष्ट करता हुआ प्राप्त होता है और नास्तिक जीवन से हमको दूर रखता है॥६॥
विशेष - ऋषिः—निध्रुविः (परमात्मा में नितान्त ध्रुव स्थिर रहने वाला उपासक)॥<br>
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