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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 500
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति꣣ धा꣡रा꣢ सु꣣त꣡स्यान्ध꣢꣯सः । त꣢र꣣त्स꣢ म꣣न्दी꣡ धा꣢वति ॥५००॥
स्वर सहित पद पाठत꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति । धा꣡रा꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । त꣡र꣢꣯त् । सः । म꣣न्दी꣢ । धा꣣वति ॥५००॥
स्वर रहित मन्त्र
तरत्स मन्दी धावति धारा सुतस्यान्धसः । तरत्स मन्दी धावति ॥५००॥
स्वर रहित पद पाठ
तरत् । सः । मन्दी । धावति । धारा । सुतस्य । अन्धसः । तरत् । सः । मन्दी । धावति ॥५००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 500
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(धारा सुतस्य) स्तुतिवाणी द्वारा स्तुत हुए (अन्धसः) आध्यानीय सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा का (सः-मन्दी) वह स्तुतिकर्ता (तरत्) पाप को तरता है (धावति) ऊर्ध्वगति को जाता है—प्राप्त होता है (तरत् सः-मन्दी धावति) निश्चय वह स्तुतिकर्ता ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है “तरति स पापं सर्वं मन्दी य स्तौति धावति गच्छत्यूर्ध्वांगतिम्” [निरु॰ १३.६]।
भावार्थ - समन्तरूप से ध्यान करने योग्य सोमरूप शान्त परमात्मा की स्तुति स्तुतिकर्ता पाप को तरता हुआ ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है निश्चित्त पाप को तर जाता है ऊँची गति को प्राप्त होता है॥४॥
विशेष - ऋषिः—अवत्सारः (रक्षा करते हुए परमात्मा—परमात्मा के अनुसार चलने वाला आस्तिक जन)॥<br>
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