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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 545
ऋषिः - अन्धीगुः श्यावाश्विः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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पु꣣रो꣡जि꣢ती वो꣣ अ꣡न्ध꣢सः सु꣣ता꣡य꣢ मादयि꣣त्न꣡वे꣢ । अ꣢प꣣ श्वा꣡न꣢ꣳश्नथिष्टन꣣ स꣡खा꣢यो दीर्घजि꣣꣬ह्व्य꣢꣯म् ॥५४५॥

स्वर सहित पद पाठ

पु꣣रो꣡जि꣢ती । पु꣣रः꣢ । जि꣣ती । वः । अ꣡न्ध꣢꣯सः । सु꣣ता꣡य꣢ । मा꣣दयित्न꣡वे꣢ । अ꣡प꣢꣯ । श्वा꣡न꣢꣯म् । श्न꣣थिष्टन । श्नथिष्ट । न । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । दीर्घजिह्व्य꣢꣯म् । दी꣣र्घ । जिह्व्य꣢꣯म् । ॥५४५॥


स्वर रहित मन्त्र

पुरोजिती वो अन्धसः सुताय मादयित्नवे । अप श्वानꣳश्नथिष्टन सखायो दीर्घजिह्व्यम् ॥५४५॥


स्वर रहित पद पाठ

पुरोजिती । पुरः । जिती । वः । अन्धसः । सुताय । मादयित्नवे । अप । श्वानम् । श्नथिष्टन । श्नथिष्ट । न । सखायः । स । खायः । दीर्घजिह्व्यम् । दीर्घ । जिह्व्यम् । ॥५४५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 545
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(सखायः) हे उपासक मित्रो! (वः) ‘यूयम् विभक्ति व्यत्ययः’ तुम (पुरोजिती) पुरः—संघर्ष संग्राम से पूर्व ही जिति—जय—अधिकार जिसका है उस प्रथम से सर्वस्वामी “सुपां सुलुक्-पूर्वसवर्णाच्छे.....” [अष्टा ७.१.३९] (अन्धसः) आध्यानीय शान्त परमात्मा के (मादयित्नवे सुताय) हर्षजनक निष्पन्न—साक्षात्कार करने योग्य के लिये (दीर्घजिह्व्यम्) आयु—जीना ही रस—भोग लक्ष्य जिसका है ऐसे—“आयुर्वै दीर्घम्” [तां॰ १३.११.१२] ‘जिह्व्या ग्राह्यो जिह्व्यो रसो रसभोगः’ (श्वानम्) कुत्ते के समान को ‘लुप्तोपमावाचकालङ्कारः’ (अपश्नथिष्टन) नष्ट करो “श्नथतिः-वधकर्मा” [निघं॰ २.१९] “जहि श्वयातुम्” [ऋ॰ ७.१०४.१२२]।

भावार्थ - उपासक जनो! तुम प्रथम से ही संघर्ष संग्राम की अपेक्षा न करते हुए सबके स्वामी सर्ववशी समन्तरूप से ध्यान करने योग्य परमात्मा के आनन्दकारी साक्षात्कार के लिये अपने अन्दर से जीने मात्र को भोग बनाने वाले कुत्ते सदृश काम भाव को नष्ट करो॥१॥

विशेष - ऋषिः—श्यावाश्वः (निर्मल इन्द्रिय घोड़ों वाला संयमी उपासक)॥ छन्दः—१-६ अनुष्टुप्॥<br>

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