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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 604
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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त्व꣢मि꣣मा꣡ ओष꣢꣯धीः सोम꣣ वि꣢श्वा꣣स्त्व꣢म꣣पो꣡ अ꣢जनय꣣स्त्वं꣢ गाः । त्व꣡मात꣢꣯नोरु꣣र्वा꣢३न्त꣡रि꣢क्षं꣣ त्वं꣡ ज्योति꣢꣯षा꣣ वि꣡ तमो꣢꣯ ववर्थ ॥६०४॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । इ꣣माः꣢ । ओ꣡ष꣢꣯धीः । ओ꣡ष꣢꣯ । धीः꣣ । सोम । वि꣡श्वाः꣢꣯ । त्वम् । अ꣣पः꣢ । अ꣣जनयः । त्व꣢म् । गाः । त्वम् । आ । अ꣣तनोः । उरु꣢ । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षम् । त्वम् । ज्यो꣡ति꣢꣯षा । वि । त꣡मः꣢꣯ । व꣣वर्थ ॥६०४॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो अजनयस्त्वं गाः । त्वमातनोरुर्वा३न्तरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ ॥६०४॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । इमाः । ओषधीः । ओष । धीः । सोम । विश्वाः । त्वम् । अपः । अजनयः । त्वम् । गाः । त्वम् । आ । अतनोः । उरु । अन्तरिक्षम् । त्वम् । ज्योतिषा । वि । तमः । ववर्थ ॥६०४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 604
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (त्वम्) तू (इमाः-विश्वाः-ओषधीः-अजनयः) इन समस्त ओषधियों—तापनाशक द्रव्यों को उत्पन्न करता है (त्वम्-अपः) तू शान्तिकारक जलों को उत्पन्न करता है (त्वं गाः) तू निर्वाह के साधन गौ आदि पशुओं तथा निवास के आश्रय पृथिवी प्रदेशों को उत्पन्न करता है (त्वम्-उरु-अन्तरिक्षम्-आतनोः) तू अवकाशप्रद महान् खुले आकाश को समन्तरूप से तानता है (त्वं ज्योतिषा तमः-वि ववर्थ) तू ज्योति से अज्ञान तथा अन्धकार को अलग करता है, हटाता है।

भावार्थ - हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू बड़ा महान् उपकारक है अपनी हम प्रजाओं के ताप भूख हरने के लिये ओषधियों को—शान्तिकारक जलों को जीवननिर्वाहक गौओं निवासाश्रय के लिये भू-प्रदेशों को अवकाशदानार्थ खुले आकाश को उत्पन्न करता है तथा अज्ञान अन्धकार के निवारणार्थ ज्योति को प्रकट करता है, सचमुच तू सर्वथा उपासनीय स्तुति योग्य है॥३॥

विशेष - ऋषिः—गोतमः (परमात्मा के प्रति अत्यन्त गतिशील उपासक)॥ देवता—पवमानः (आनन्दधारा में प्राप्त होता हुआ परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>

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