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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 664
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनो जमदग्निर्वा
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
उ꣣रुश꣡ꣳसा꣢ नमो꣣वृ꣡धा꣢ म꣣ह्ना꣡ दक्ष꣢꣯स्य राजथः । द्रा꣣घि꣢ष्ठाभिः शुचिव्रता ॥६६४॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣रुश꣡ꣳसा꣢ । उ꣣रु । श꣡ꣳसा꣢꣯ । न꣣मोवृ꣡धा꣢ । न꣣मः । वृ꣡धा꣢꣯ । म꣣हा꣢ । द꣡क्षस्य꣢꣯ । रा꣣जथः । द्रा꣡घि꣢꣫ष्ठाभिः । शुचिव्रता । शुचि । व्रता ॥६६४॥
स्वर रहित मन्त्र
उरुशꣳसा नमोवृधा मह्ना दक्षस्य राजथः । द्राघिष्ठाभिः शुचिव्रता ॥६६४॥
स्वर रहित पद पाठ
उरुशꣳसा । उरु । शꣳसा । नमोवृधा । नमः । वृधा । महा । दक्षस्य । राजथः । द्राघिष्ठाभिः । शुचिव्रता । शुचि । व्रता ॥६६४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 664
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(उरुशंसा) हे अति प्रशंसनीय (नमोवृधा) स्तुतियों द्वारा मुक्त उपासक को बढ़ाने वाले (मह्ना) महान् (शुचिव्रता) पवित्र कर्म करने वाले मित्रावरुणस्वरूप परमात्मन् (द्राघिष्ठाभिः) तू दीर्घ काल की स्तुतियों द्वारा (दक्षस्य राजथः) मेरे आत्मस्वरूप को प्रकाशित कर रहा है।
भावार्थ - परमात्मन्! तू अति प्रशंसनीय है पवित्रकारी महती पूर्व से चली आई स्तुतियों से मुझ उपासक के आत्मबल पर अधिकार किये रक्षा कर रहा है॥१॥
विशेष - <br>
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