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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 671
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
इ꣡न्द्र꣢म꣣ग्निं꣡ क꣢वि꣣च्छ꣡दा꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ जू꣣त्या꣡ वृ꣢णे । ता꣡ सोम꣢꣯स्ये꣣ह꣡ तृ꣢म्पताम् ॥६७१॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣ग्नि꣢म् । क꣣विच्छ꣡दा꣢ । क꣣वि । छ꣡दा꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । जू꣣त्या꣢ । वृ꣣णे । ता꣢ । सो꣢म꣢꣯स्य । इ꣡ह꣢ । तृ꣣म्पताम् ॥६७१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमग्निं कविच्छदा यज्ञस्य जूत्या वृणे । ता सोमस्येह तृम्पताम् ॥६७१॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रम् । अग्निम् । कविच्छदा । कवि । छदा । यज्ञस्य । जूत्या । वृणे । ता । सोमस्य । इह । तृम्पताम् ॥६७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 671
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(इन्द्रम्-अग्निम्) ऐश्वर्यवान् प्राणरूप एवं प्रकाशवान् उदानरूप परमात्मा को (कविच्छदा) जो मेधावी ऋषिजनों का रक्षक है ऐसे को (यज्ञस्य जूत्या वृणे) अध्यात्मयज्ञ की प्रीति “जूतिः प्रीतिर्वा” [निरु॰ १०.२९] के कारण वरता हूँ अपने में धारण करता हूँ (ता) उन दोनों रूप वाले परमात्मा को (इह) इस जीवन में (सोमस्य तृम्पताम्) उपासनारस को स्वीकार कर मुझे तृप्त कर।
भावार्थ - स्तुतिकर्ता ऋषिजनों के रक्षक ऐश्वर्यवान् प्राणरूप और प्रकाशवान् उदानरूप परमात्मा को अध्यात्मयज्ञ रचाने की प्रीति श्रद्धा से स्वीकार करता हूँ वह इस जीवन में उपासनारस स्वीकार कर मुझे तृप्त करे॥३॥
विशेष - <br>
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