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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 683
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
4

क꣡स्त्वा꣢ स꣣त्यो꣡ मदा꣢꣯नां꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठो मत्स꣣द꣡न्ध꣢सः । दृ꣣ढा꣡ चि꣢दा꣣रु꣢जे꣣ व꣡सु꣢ ॥६८३॥

स्वर सहित पद पाठ

कः꣡ । त्वा꣣ । सत्यः꣢ । म꣡दा꣢꣯नाम् । म꣡ꣳहि꣢꣯ष्ठः । म꣣त्सत् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । दृ꣣ढा꣢ । चि꣣त् । आरु꣡जे꣢ । आ꣣ । रु꣡जे꣢꣯ । व꣡सु꣢꣯ ॥६८३॥


स्वर रहित मन्त्र

कस्त्वा सत्यो मदानां मꣳहिष्ठो मत्सदन्धसः । दृढा चिदारुजे वसु ॥६८३॥


स्वर रहित पद पाठ

कः । त्वा । सत्यः । मदानाम् । मꣳहिष्ठः । मत्सत् । अन्धसः । दृढा । चित् । आरुजे । आ । रुजे । वसु ॥६८३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 683
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(अन्धसः) अध्यात्म यज्ञ के “यज्ञो वा अन्धः” [जै॰ १.११६] (मदानाम्) हर्ष वाले—हर्ष प्राप्ति योग्यों में “अत्र मत्वर्थीयोऽकारश्छान्दसः” (कः) कोई भाग्यशाली (सत्यः) सत्पुरुष (मंहिष्ठः) अतीव महनीय प्रशंसनीय उपासक (त्वा मत्सत्) तुझ इन्द्र परमात्मा को तृप्त करता है—सन्तुष्ट करता है “मदी तृप्तियोगे” [चुरादि॰] तथा (दृढा चित्-वसु-आरुजे) दृढ़ भी वसुओं के मध्य में वसे बाधकों को समन्तरूप से भङ्ग करने को समर्थ होता है।

भावार्थ - अध्यात्मयज्ञ के आनन्द प्राप्त करने वाले अधिकारियों में विरला प्रशंसनीय उपासक सच्चा जन परमात्मा को स्वोपासन कर्म से सन्तुष्ट करता है तथा बड़े बसे हुए बाधकों को भङ्ग—नष्ट करता है॥२॥

विशेष - <br>

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